श्रीकनक धारा
स्तोत्रम्
अरुण कमल संस्था तद्रजःपुंजवर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टाभीति युग्माम्बुजा
च। मणिकटक विचित्रा-लंकृता-कल्पजालैः,
सकलभुवन माता संततं श्रीःश्रियै
नः।।
कमलासन पर
विराजमान कमल के पराग पुंज के जैसी आभा वाली,अपने कर कमलों में इष्ट अभय तथा कमल
युगल धारण करने वाली,मणि निर्मित कटकादि विचित्र कल्प जालों के अलंकारों से
अलंकृत,सकल भुवन की माता महालक्ष्मी, निरन्तर हमें श्री
(सौगन्ध्य,सौविध्य,सौजन्य,सौमनस्य,सौरभ्य,सौलभ्य,सौरस्य,सौकर्य, सौख्य,सौदर्य,सौभाग्य,सौन्दर्य,सम्पत्ति,सामर्थ्य,सुयश,निरामय
चिरायुष्य,सद्भावपरिपूरित संतति सन्मति तथा साधना)प्रदान करें।।
अंगं हरेः पुलक-भूषण-माश्रयन्ती,
भृंगांग-नेव मुकुला-भरणं तमालम्।
अंगीकृता-खिल-विभूति-रपांग-लीला,
मांगल्य-दास्तु मम
मंगल-देवतायाः।।1।।
अन्वयः-इव (यथा) भृंगांगना मुकुलाभरणं तमालं (अनिर्वचनीयया
लालसया आश्रयति) तद्वदेव हरेः पुलक-भूषणं
अंगं आश्रयन्ती,अंगीकृताः अखिला विभूतिः यया,मंगल देवतायाः सा अपांगलीला मम
मांगल्यदा अस्तु।
भावार्थः- जिस
प्रकार भ्रमर भार्या भ्रमरी अवर्णनीय अनुराग पूर्वक कसुम कलिकाओं से समलंकृत तमाल
वृक्ष का आश्रय लेती है,(अर्थात् उसके
आसपास ही मडराती रहती है,) उसी प्रकार पुलक रूपी पराग पुंजों से सुशोभित,भगवान्
नारायण के श्री अंगों का समाश्रयण ग्रहण
करने वाली,सर्व विध ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री,सर्व मंगला
देवी,भगवती महालक्ष्मी के कृपा कटाक्षों का
लीला लालित्य मुझे मांगल्य प्रदान करें। ।।1।।
मुग्धा-मुहु-र्विदधती वदने
मुरारेः,
प्रेम-त्रपा-प्रणि-हितानि
गता-गतानि।
माला दृशो-र्मधुकरीव महोत्पले या,
सा मे श्रियं दिशतु सागर
संभवायाः।।2।।
अन्वयः-इव (यथा) महोत्पले भ्रमरी (समासक्ता-तस्यानुराग-परागानुरक्ता
पुनःपुनः तस्यैव परिक्रमणं करोति) तथैव श्री मुरारेःवदनारविन्दे मुग्धा
मुहुःप्रेम-त्रपा-प्रणिहितानि गतागतानि (प्रेम्णा गतानि त्रपया आगतानि इति प्रेम
त्रपा संयुक्तानि) विदधती सागर संभवायाः या दृशःमाला सा मे श्रियं दिशतु।।
भावार्थः-जिस प्रकार अनिंद्य अरविन्द के मकरंद पर विमुग्ध हुई मिलिन्द
भार्या भ्रमरी पुनःपुनः उसी के चारों ओर परिभ्रमण करती रहती है,उसी प्रकार मुर
प्रभति महादैत्यों के विनाशक श्रीमन्नारायण के मुख-कमल की कमनीय कान्ति पर विमुग्ध
हुई बार बार प्रेम के वशीभूत होकर अत्यन्त समीपता की संप्राप्ति की आतुरता से आगे
बढने और फिर लज्जावश पीछे लौ आने वाली क्षीर सागर समुद्भूता भगवती महालक्ष्मी की
मनोहारिणी दृष्टि मालिका मुझे परम ऐश्वर्य प्रदान करे।।2।।
विश्वा-मरेन्द्र-पद-विभ्रम-दान-दक्ष-
मानन्द हेतुरधिकं मुर विद्विषोपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षण-मीक्षणार्ध-
मिन्दी-वरोदर सहोदर-मिन्दरायाः ।।3।।
अन्वयः-विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षं,मुरविद्विषःअपि अधिकं आनंद
हेतुभूतं, इन्दिरायाः इन्दीवरोदर सहोदरं, ईषत् ईक्षणार्धं क्षणं मयि (अपि)निषीदतु।
भावार्थः-समस्त देवताओं के अधिपति देवराज इन्द्र के पद एवं तदनुकूल वैभव को
प्रदान करने में समर्थ,मुरहन्ता श्रीमन्नारायण के हृदय में अतिशय आनन्द की
हेतुभूता ,नील कमल के मध्य भाग की कान्ति के समान कान्ति वाली,भगवती महालक्ष्मी की
अर्धोन्मीलित (अधखुले)नयनों की करुणा से पूरित किंचित दृष्टि क्षण मात्र के लिये
मेरे ऊपर भी अवश्य हो।।3।।
आमीलिताक्ष-मधिगम्य-मुदा-मुकुंद-
मानंद-कंद-मनिमेष-मनंग-तंत्रम्।
आकेकरस्थित-कनीनिक-पक्ष्म-नेत्रं-
भूत्यै-भवेन्मम-भुजंग-शयांग-नायाः।।4।।
अन्वयः-अनंगतंत्रं(अनंग साम्राज्ये प्रविष्टत्वात्) अनिमेषं आमीलिताक्षं
आनंदकंदं मुकुंदं अधिगम्य कनीनिक पक्ष्म च आकेकरस्थिते जाते (ययोः नेत्रयोः)भुजंगशयांगनायाःतत्
नेत्रं मम भूत्यै भवेत्।। (आकेकरः-आके अंतिके कीर्त्यते इति आकेकरः,दृष्टिः-आकेकरा
किंचित् स्फुटापांगे प्रसारिता,मीलिता अर्धपुटा लोके तारा व्यावर्तनोत्तरा)
भावार्थः-कंदर्प के संपर्क से प्रभावित होकर समुत्सुक जैसे अधखुले निरंतर
दृष्टिपात करते, आनंदकंद माधव मुकुंद के अतिशय सामीप्य की प्राप्ति से
प्रमुदित,शेषशायी भगवान विष्णु की आह्लादिनी शक्ति के चंचल चितवन वाले वे नयन मुझे
समस्त विभूतियां प्रदान करने वाले हो।।4।।
बाह्वन्तरे मधुजितःश्रितकौस्तुभे
या
हारावलीव
हरि नील मयि विभाति।
कामप्रदा भगवतोपि कटाक्ष माला,
कल्याण-मावहतु
मे कमलालयायाः।।5।।
अन्वयः-या(कटाक्षमाला) मधुजितः श्रितकौस्तुभे बाह्वन्तरे हरि(इन्द्र)नीलमयी हारावली इव विभाति, या भगवतः अपि
कामप्रदा,(अस्ति)कमलालयायाः सा कटाक्षमाला मे कल्याणं आवहतु ।
भावार्थः-मधु नामक दैत्य को जीतने वाले भगवान श्रीकृष्ण के कौस्तुभमणि से
सुशोभित वक्षस्थल पर इन्द्र नीलमणियों से विरचित हारावली की भांति जो सुशोभित होती
हैं,कोटि कंदर्प दर्प दलन पटीयान भगवान के हृदय में भी कामना का उद्भव कराने वाली
कमल वन निवासिनी भगवती महालक्ष्मी की कटाक्षमाला मेरे सर्व विध कल्याण का संपादन
करें।5
कालाम्बुदालि-ललितोरसि कैटभारेः
धाराधरे स्फुरति या
तडिदंगनेव।
मातुः समस्त जगतां महनीय
मूर्तिः
भद्राणि मे दिशतु भार्गव
नंदनायाः।।6।।
अन्वयः-इव (यथा) धाराधरे तडित् अंगना स्फुरति, तथैव
कैटभारेः कालाम्बुदालि ललितोरसि या स्फुरति,समस्त जगतां मातुः
भार्गवनंदनायाः(सा)महनीय मूर्तिः मे भद्राणि दिशतु।
भावार्थः-जिस प्रकार सजल जलधरों के मध्य में विद्युल्लता
चमकती है,उसी प्रकार जो कैटभासुर मर्दन निपुण मदनमोहन के काले काले मेघों की
पंक्ति के समान आकर्षक वक्षःप्रान्त पर देदीप्यमान होती है,समस्त प्रपंच की प्रसव
भूमि जगतमाता भृगुवंशियों के आनंद की वृद्धि करने वाली भगवती महालक्ष्मी की वह
महनीय मूर्ति मेरे लिये भद्रों का वितरण करें,अर्थात् मंगल कारक हो।।6।।
प्राप्तं पदं
प्रथमतःकिल यत् प्रभावान्
मांगल्य भाजि
मधु माथिनि मन्मथेन।
मय्या-पतेत् तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं
मंदालसं च
मकरालय कन्यकायाः।।7।।
अन्वय़ः-मकरालय कन्यकायाःमंदालसं मंथरं च(यत्)
ईक्षणार्धं (अस्ति)यत् प्रभावात् मन्मथेन मंगल भाजि मधुमाथिनि(हृदये)प्रथमतः पदं
प्राप्तं,तत्(एव ईक्षणार्धं)इह मयि दीने अपि पतेत्।
भावार्थः-सिंधु सुता भगवती महालक्ष्मी की मंद-मंद
अलसायी सी अधखुली आंखों का ऐसी मंथर दृष्टि है जिसके प्रभाव से रति प्रीति प्रियतम
कामदेव ने मंगलाश्रय भगवान मधुसूदन के हृदय में,प्रथम स्थान प्राप्त किया,भगवती
महालक्ष्मी की वही कृपा कोर यहां मुझ दीन पर भी हो जाये।।7।।
दद्या-द्दयानु-पवनो
द्रविणाम्बु धारा-
मस्मिन्नकिंचन
विहंग शिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म घर्म-मपनीय चिराय दूरं
नारायण
प्रणयिनि नयनांबुबाहः।।8।।
अन्वयः-नारायण प्रणयिनि नयनाम्बुबाहः
दयानुपवनः(भूत्वा)दुष्कर्म घर्मं चिराय दूरं अपनीय,अस्मिन्(मयि)विषण्णे अकिंचन
विहंग शिशौ द्रविणाम्बु धारां दद्यात्।।
भावार्थः-श्रीमन्नारायण की अनन्य प्रियतमा जगन्माता
भगवती महालक्ष्मी के नयन रूपी सजल जलधर दया रूपी पवन से अनुप्रेरित होते हुए मेरे दुष्कर्म
रूपी तीव्र दाहकता प्रदायक घाम (धूप)को चिरकाल तक दूर कर दें, तथा वे करुणार्द्र
नयन जलधर मुझ विषादग्रस्त अकिंचन अनाथ पक्षिशावक(चातक) पर धन रूपी जलधारा की वर्षा
करें।
इष्टा विशिष्ट-मतयोपि
यया दयार्द्र
दृष्ट्या
त्रिविष्टप-पदं सुलभं लभंते।
दृष्टिः प्रहृष्ट कमलोदर दीप्ति-रिष्टां
पुष्टिं
कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टरायाः।।9।।
अन्वयः-इष्टा विशिष्ट मतयः कमलोदर दीप्तिः दृष्टिः मम इष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट।अपि यया
दयार्द्र दृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते, पुष्कर विष्टरायाः (सा) प्रहृष्ट
भावार्धः-
विशिष्ट मेधायुक्त समादरणीय सज्जन भी जिनकी दया भाव से परिसिंचित दृष्टि के
कृपा प्रसाद से स्वर्गादि लोकों को अनायास प्राप्त कर लेते हैं,अमल कमल के आसन पर
विराजमान होने वाली माता लक्ष्मी की आनंद से खिली पद्म गर्भ के समान भासमान जो
संताप हारिणि कृपा दृष्टि है,वह मेरे अभीष्ट मनोरथों को पुष्ट करें।9।।
गीर्देवतेति
गरुडध्वज सुन्दरीति,
शाकंभरीति
शशिशेखर-वल्लभेति।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै
तस्यै
नमस्त्रि-भुवनैक गुरो-स्तरुण्यै।।10।।
अन्वयः-गीःदेवता इति (सृष्टौ)गरुडध्वज
सुन्दरी-इति(स्थितौ)शाकम्भरीति शशिशेखर बल्लभा इति(प्रलये) (इत्यादिभिः विभिन्न
स्वरूपैः) सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै त्रिभुवनैक गुरोः तरुण्यै
नमः।।
भावार्थः-सृष्टि के प्रारम्भकाल में ब्रह्मा की
शक्ति श्रीमहासरस्वती के स्वरूप में,जगत् परिपालन के समय विष्णु की शक्ति
श्रीमहालक्ष्मी के रूप में, एवं प्रलय काल में शशिशेखर सदाशिव की बल्लभा शाकम्भरी
श्री महाकाली के स्वरूप में सृष्टि,स्थिति और प्रलय की क्रीडा में निरत रहने वाली ,तीनों भुवनों के
एकमात्र स्वामी भगवान विष्णु की नवयौवना सहधर्मिणि भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार
है।।10।
श्रुत्यै
नमोस्तु शुभ कर्म फल प्रसूत्यै,
रत्यै नमोस्तु
रमणीय गुणा-र्णवायै।
शक्त्यै नमोस्तु शतपत्र निकेतनायै,
पुष्ट्यै
नमोस्तु पुरुषोत्तम बल्लभायै।।11।।
अन्वयः-शुभ कर्मफलप्रसूत्यै श्रुत्यै नमःअस्तु,रमणीय
गुणार्णवायै रत्यै नमःअस्तु,शतपत्र निकेतनायै शक्त्यै नमःअस्तु,पुरुषोत्तम
बल्लभायै पुष्ट्यै नमःअस्तु।
भावार्थः-समस्त शुभ कर्मों के अनुकूल परिणाम को
समुत्पन्न करने वाली श्रुति स्वरूपा भगवती महालक्ष्मी को शतदल पर निवास करने वाली
शक्ति स्वरूपा भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार हो,अचिन्त्य गुण-गण निलय भगवान नारायण
की बल्लभा पुष्टि रूपा भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार हो।11।
नमोस्तु नालीक
निभाननायै,
नमोस्तु
दुग्धोदधिजन्म भूत्यै।
नमोस्तु सोमामृत सोदरायै,
नमोस्तु
नारायण बल्लभायै।।12।।
अन्वयः-नालीक निभाननायै नमः अस्तु,दुग्धोदधि
जन्मभूत्यै नमः अस्तु, सोमामृतसोदरायै नमः अस्तु, नारायण बल्लभायै नमःअस्तु।।
भावार्थः-अनिन्द्य अरविन्द की अनुपम आभा के सदृश आभा
प्रभा कान्ति से युक्त मुखकमल वाली माता महालक्ष्मी को नमस्कार हो, क्षीरसमुद्र
में समुत्पन्न परमैश्वर्य शालिनी माता महालक्ष्मी को नमस्कार हो,शशांक और सुधा की
सहोदरा माता महालक्ष्मी को नमस्कार हो,एवं श्रीमन्नारायण की परम प्रियतमा माता
महालक्ष्मी को नमस्कार हो।12।।
संपत्कराणि
सकलेन्द्रिय नन्दनानि,
साम्राज्य दान
विभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वंदनानि दुरिता-हरणोद्यतानि,
मामेव
मातरनिशं कलयन्तु मान्ये।।13।।
अन्वयः-हेसरोरुहाक्षि, त्वत्-वन्दनानि
सम्पत्कराणि,सकलेन्द्रिय नन्दनानि(सन्ति)साम्राज्य
दान-विभवानि,दुरिताहरणोद्यतानि(च सन्ति अतः)मान्ये मातः मामेव अनिशं कलयन्तु।।
भावार्थः-हे नलिनोपम कमनीय नयनों वाली मां,आपके
श्रीचरणारविन्दों में समर्पित किये गये अभिवन्दन सर्व संपदाओं को देने वाले
हैं,समस्त इन्द्रियों को आनन्दानुभूति कराने वाले हैं, परम ऐश्वर्य सम्पन्न अखण्ड
भूमण्डल का साम्राज्य प्रदान करने में समर्थ हैं,तथा समस्त ज्ञात-अज्ञात पाप
पुञ्जों का आहरण करने में सदैव समुद्युत रहते हैं,अतः हे मान्य मान्ये मां आपको
नमन करने का यह सरदुर्लभ सौभाग्य मुझको ही निरन्तर सम्प्राप्त होता रहे।।13।
यत्कटाक्ष-समुपासना-विधिः,
सेवकस्य
सकलार्थ संपदः।
संतनोति वचनांग मानसैस्त्वां,
मुरारि-हृदयेश्वरीं
भजे।।14।।
अन्वयः-यत्कटाक्ष-समुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थ
सम्पदःसंतनोति (तत्) मुरारि हृदयेश्वरीं त्वां वचनांग मानसैः(अहं)भजे।
भावार्थः-जिनकी कृपा कटाक्ष गर्भिता उपासना
प्रक्रिया साधक के समस्त ऐश्वर्य मूलक संकल्पों को परिपूर्ण करती है,ऐसी मुररिपु
हन्ता भगवान विष्णु के हृदय साम्राज्य की अधीश्वरी माता महालक्ष्मी मैं आपको तन मन
वचन से नमन करता हूं।14।
सरसिज-निलये-सरोजहस्ते,
धवल-तमांशुक-गंध-माल्य-शोभे।
भगवति हरि-बल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवन-भूति-करि
प्रसीद मह्यम्।।15।।
अन्वयः-हे भगवति,हरिबल्लभे,सरसिजनिलये,सरोजहस्ते,
धवलतमांशुकगंधमाल्यशोभे, मनोज्ञे त्रिभुवनभूति करि मह्यम् प्रसीद।।
करकमल में कमल पुष्प भावार्थः-हे समस्त ऐश्वर्य
सम्पन्ना,हे नारायणप्रिये, हे कमलनिलय निवासिनी,स्वकीय को धारण करने वाली,अत्यन्त
श्वेतवस्त्र,चन्दन,एवं पुष्प मालिका से सुशोभित होने वाली,हे मनोहारिणि,तीनों
लोकों को विशिष्ट ऐश्वर्य से संपन्न करने वाली, माता महालक्ष्मी आप मुझपर प्रसन्न
हो जायें।।15।।
दिग्घस्तिभिःकनक-कुम्भ-मुखाव-सृष्ट,
स्व-र्वाहिनी-विमल-चारु-जलप्लु-तांगीम्।
प्रात-र्नमामि
जगतां जननी-मशेष-
लोका-धिनाथ-गृहिणी-ममृताब्धि-पुत्रीम्।।16।।
अन्वयः-दिग्घस्तिभिःकनककुम्भ मुखावसृष्ट
स्वर्वाहिनीविमल चारुजलप्लुतागीं, अमृताब्धिपुत्रीं,लोकाधिनाथगृहिणीं,अशेषजगतां
जननीं प्रातः(अहं) नमामि।।
भावार्थः-अष्टदिग्गजों के द्वारा सुवर्णकलशों के मुख
से निकली,आकाशगंगा की पवित्रतम सुन्दर जलधारा से अभिषिक्त,परिसिञ्चित कमनीय अंगों
वाली,सुधासिन्धु की सर्वोत्तमा सुता,संपूर्ण लोकों के अधिपति भगवान विष्णु की
भार्या,समस्त जगत को जन्म देने वाली माता,श्रीमहालक्ष्मी को मैं प्रातःकालीनवेला
में प्रणाम करता हूं।।16।।
कमले
कमलाक्ष-बल्लभे,
त्वं
करुणापूर-तरंगितै-रपांगैः। अवलोकय-मामकिंच-नानां
प्रथमं-पात्र-मकृत्रिमं
दयायाः।।17।।
अन्वयः-कमलाक्षबल्लभे,कमले,अकिमचनानां प्रथमं,अकृत्रिमं
दयायाःपात्रं(माम्) करुणापूरतरंगितैःअपांगैःत्वं माम् अवलोकय।
भावार्थः-पुण्डरीकाक्ष भगवान नारायण की बल्लभा,हे
मां कमला, मैं दरिद्रतमों में प्रथम स्थानीय अकिंचन हूं, अतः आपकी दया का
अकृत्रिम(वास्तविक)पात्र हूं।हे मां महालक्ष्मी,तुम करुणा के प्रवाह में उठी
उत्ताल तरंगों के समान अपने कृपा कटाक्षों से मेरा अवलोकन करो (वात्सल्य पूर्वक
मुझे निहारो)।।17
स्तुवन्ति ये
स्तुतिभि-रमूभि-रन्वहं,
त्रयीमयीं
त्रिभुवन-मातरं-रमाम्।
गुणाधिका-गुरुतर-भाग्य-भागिनो,
भवन्ति-ते
भुवि बुध-भाविता-शयाः।।18।।
अन्वयः-ये अमूभिःस्तुतिभिः अन्वहं
त्रयीमयींत्रिभुवनमातरं रमां स्तुवन्ति,ते भुवि गुणाधिकाःगुरुतर भाग्य भागिनः
भवन्ति बुधभाविताशयाः च भवन्ति।।
भावार्थः-जो प्रतिदिन इन पवित्र स्तुतियों त्रिगुणात्मिका(वेदत्रय-देवत्रय
स्वरूपा) त्रिभुवनजजननी भगवती महालक्ष्मी का स्तवन करते हैं, वे भूतल पर अतिशय
गुणों सेयुक्त,श्रेष्ठतम सौभाग्य से सम्पन्न तथा विद्वानों के द्वारा भी अतिशय
सम्मान के पात्र होते हैं,अर्थात् वे विद्वानों के हृदय में भी स्थान प्राप्त कर
लेते हैं।18।
सुवर्ण-धारा-स्तोत्रं,यच्छंकराचार्य-निर्मितम्।
त्रिसन्ध्यं यःपठेन्नित्यं स कुबेरसमो भवेत्।।19।।
अन्वयः-यत् शंकराचार्य निर्मितं
सुवर्णधारा(कनकधारा)स्तोत्रं,नित्यं यः त्रिसन्ध्यं पठेत्,सःकुवेर समो भवेत्।।
भावार्थः- आदि जगद्गुरु भगवान श्री शंकराचार्य
द्वारा विरचित इस कनकधारा स्तोत्र का जो नित्य त्रिकाल(प्रातः-मध्यान्ह-सायम्)पाठ
करता है, वह कुबेर के समान धन-धान्य से सम्पन्न हो जाता है।।19।।
इस स्तोत्र का भावपूर्वक पाठ करने से साधक को विपुल
धनधान्य की प्राप्ति होती है,सभी प्रकार की दीनता,दरिद्रता,दुर्भाग्य,दुख
क्लेश,आधिव्याधि आदि विपत्तियां मिट जाती हैं।सहस्रशः सहस्रों,साधकों के द्वारा
अनुभूत अत्यन्त चमत्कारी स्तोत्र है।
श्रीगुरुकृपाधनसम्पन्नः संशोधकः
त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्यः आचार्य श्री दिवाकरो वाशिष्ठः