Thursday 3 May 2012


सपदि विचारय हृदयागारे,कथमागमनमिह संसारे।
जननं मरणं बहुशो जातं,कथय किमर्थं किमपि न ज्ञातम्।.
परिहर चिन्ता त्वं परिवारे,कथमागमनमिह संसारे।।1
सुत-जाया-पति-पिता-च माता,सखा सुता वा भगिनिभ्राता।
परिजन पुरजन परिकरवन्तः,कोपि न बन्धुःमृत्योःद्वारे।।2
रूपं वित्तं यशः प्रतिष्ठा,शक्तिःशौर्यं देहे निष्ठा।
सर्वं व्यर्थं क्षणिकमनित्यं,प्रलये काले शिव संहारे।।3
तपसा सिद्धिःतपसा वृद्धिः,तपसा मेधा तपसा शुद्धिः।
तपसा सर्वं भवति च लोके,तपसःशक्तिःसृष्ट्याधारे।।4
सफलं कुरु त्वं मानव जन्म,परोपकारं करोतु नित्यम्।
कदापि पतनं भवति न तस्य,वासः स्वर्गे लक्ष्म्यागारे।।5
छंदमुक्त 16 मात्रात्मक गेय प्रधान कृति काव्य रसिकों की सेवा में समर्पित है...


श्रीदाम्ना विपराजितोति-विकलःस्कन्धाधिरूढेन वै,                                                                 श्रान्तःस्वेद कणैर्विभासित-मुखो-रक्ताभ-नेत्रान्वितः।                                               राधादृष्टिगतःपराभव भयात जेतुं प्रपंचे रतः,                                                           क्रीडासक्तमनो मनोहर हरिः मे मानसे राजताम्।।                                                               खेल में भगवान श्रीकृष्ण श्रीदामा से हार गये,परिणामतः पूर्व निर्धारित नियमानुसार श्रीदामा को अपनी पीठ पर बिठाकर लक्ष्य तक ले जा रहे हैं,(चड्ढु खिलाना कहते हैं व्रज में)पसीने की बूंदों से मुखकमल शोभित हो रहा है,थकावट से वेचैन हैं,आंखें लाल हो गयी हैं,(इस बात से तो कोई अन्तर नहीं परन्तु)श्री राधा  जी ये सब देख रही हैं,ये बात जैसे ही लाला को पता चली,बस लाला की लीला शुरु हो गयी,करने लगे झगङा, अपनी जीत घोषित करने लगे,श्रीदामा भी कब झुकने वाले थे बोले लाला तू बङे बाप कौ होयगो तो अपने घऱ कू होयगो,तू भगवान भी है तो कहा है गयौ,हारौ है तो चड्ढु तो दैनी परेगी,खेलत में को काकौ गुसैंया (पर भाई प्रियतमा के आगे आसानी से हार कौन स्वीकार करे)इस खेल में डूबे मनमोहक श्री कृष्ण मेरे मन में विराजित हो जायें।।

                  श्रीकृष्ण बोधाष्टकम्
कृष्णभक्तो मृदुःकृष्णभावे रतः,कृष्णलीलान्वितःकृष्णजायाश्रितः*।     कृष्णधाम्न्युद्भवःकृष्णभक्तैर्वृतो,वन्द्यवन्द्यो यतिःकृष्णबोधाश्रमः।।1                                                                                      कृष्ण भाव में डूबे रहने वाले,भावुक कृष्णभक्त,कृष्णलीलाओं के जुङे हुए,यमुना के तट पर रहने वाले,मथुरा के समीप अवतरित,कृष्णभक्तों से घिरे,वन्दनीय जनों के भी वन्दनीय स्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रम जी महाराज की जय हो।*अवतरणस्थली यमुना के किनारे,मांट के पास छाहरी,साधना बागपत पक्का घाट,कर्मभूमि इन्द्रप्रस्थदिल्ली,अधिकांश समय यमुना की पावन सन्निधि में ही रहे,
उत्तराखण्डभूमौ हि जोशीमठे,शंकराचार्यपादेन संस्थापिते।                                                             शंकराचार्य पीठे च संशोभितो,वन्द्यवन्द्यो....2।।                                                             उत्तराखण्ड की दिव्य भूमि जोशी मठ बदरिकाश्रम में, आदिजगद्गुरु शंकराचार्य भगवान द्वारा संस्थापित,शंकराचार्य पीठ पर शोभायमान,वन्दनीयों के भी वन्दनीय पूज्य स्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रम जी महाराज की जय हो।
साधुता सौम्यता वाग्मिता विज्ञता,साधनाराधनाध्यानसंधारणा।                                            सद्गुणा यत्र सर्वे समाभूषिताः,वन्द्यवन्द्.....।।3।                    साधुता,सौम्यता,वक्तृता,बहुज्ञता,साधना,आराधना,ध्यान,धारणा इत्यादि सद्गुण                                           जहां आकर सुशोभित हो गये,ऐसे पूज्य श्री स्वामी जी महाराज की जय हो।
त्याग वैराग्ययोःज्ञानविज्ञानयोः,रौप्यसिंहासने येन पूजा कृता।                                                     मृत्तिका पात्र हस्तो यतीशेश्वरो,वन्द्यवन्द्यो..............।।4।।                                                    दुनिया की अद्भुत घटना सम्पादित करने वाले, जिन्होंने चांदी के दिव्य सिंहासन पर ज्ञान विज्ञान तथा त्याग वैराग्य को स्थापित करके उनकी विधिवत् पूजा की,मिट्टी का पात्र हाथ में रखने वाले,यतियों में श्रेष्ठ,वन्दनीयों के भी वन्दनीय पूज्य श्री की जय हो।
धर्मसंघस्य संवर्धने तत्परो,धर्मशिक्षाप्रचाराय निद्रोज्झितः।                                               धर्मसम्राट्सखाधर्म रक्षाव्रती,वन्द्य वन्द्यो.............।।5।।                                                   धर्मसंघ के संवर्धन में तत्पर,धर्मशिक्षा के प्रचार के लिये निद्रा सुख को भी त्यागने                              वाले, स्वामी करपात्री जी के अनन्य सखा,धर्म रक्षा का व्रत लेने  वाले,वंदनीयों के भी            वंदनीय श्री स्वामी जी की जय हो।
शारदायाश्चलं सारदं मन्दिरम्,कर्मणा सद्गुरुश्चेतसा सद्गुरुः।                                           निर्धनानां परःशंकरःशंकरो,वन्द्यवन्द्यो......।।6।।                                                                             ज्ञान प्रदाता सरस्वती के चल मंदिर(सचल पुस्तकालय)कर्म एवं चित्त से वास्तविक सद्गुरु,निर्धनों के परं कल्याण कारक शंकर,वंदनीयों के भी वंदनीय श्री स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी महाराज की जय हो।
सात्विको भोजने सात्विको भाजने,सात्विको भूषणे सात्विको भाषणे।                                    सात्विकाःयस्य सर्वाः क्रियाः सिद्धिदाः,वन्द्यवन्द्यो.......................।।7।।                                                    जिनके भोजन,भाजन,भजन,भूषण,भाषण,भाषा,भेष,इत्यादि में सात्विकता के दर्शन होते थे,सिद्धि प्रदान करने वाली समस्त क्रियायें जिनकी सात्विकता से ओतप्रोत थी,एसे वंदनीयों के भी वंदनीयपूज्य श्री कृष्णबोधाश्रम जी महाराज की जय हो।
ब्रह्मवैवर्तचारी जगद्गौरवः,सज्जनानां सदा प्रेरको बोधकः।                                                    पादपद्मेषु तेषां सदा श्रद्धया,त्र्यम्बकेनार्प्यते वाक्प्रसूनाञ्जलिः।।8।।                                         अधिकांशतया गंगा यमुना के मध्य भाग में ही विचरण करने वाले,सज्जनों के हृदय में सदा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा उत्पन्न करने वाले,पूज्य श्री जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री कृष्णबोधाश्रम जी महाराज के पावनतम पादारविन्दों में त्र्यम्बकेश्वर के द्वारा श्रद्धा पूर्वक वाक्प्रसूनाञ्जली समर्पित की जाती है।।
कलिकालुष्य नाशाय,कृष्णबोधमवाप्तये।सत्स्मरणात्मकंस्तोत्रं मयाकारि तदष्टकम्।।                                   कलि की कलुषता के विनाशार्थ,कृष्ण तत्व की प्राप्ति के लिये,ये सन्तों के स्मरण रूपात्मक स्तोत्र का मेरे द्वारा प्रणयन किया गया।।* एकवचन का प्रयोग श्रद्धा की न्यूनता का द्योतक नहीं है,काव्य प्रवाह के समय जैसा आकार मां शारदा की शब्द जाह्न्वी ने लिया वह आपके समक्ष है।।



श्री लक्ष्येश्वर पंचकम्
सद्योगीश्वर वृन्द वन्दित मतिःविद्यावतां भूपतिः,
 स्वाध्यायाध्यय-नावबोध-विहितानुष्ठान-निष्ठाव्रती।
भूमानंद निकेतने विलसितो द्वारिद्यु नद्यास्तटे,
वन्द्यो ज्ञान सुधाकरो गुरुवरो लक्ष्यंश्वराख्यो यतिः।।1
लीलाभ्यस्त समस्त शास्त्र सिरसा विद्यालये नोहरे,
काश्यां चाथ हिमालये जयपुरे वृन्दावने सद्वने।
जातस्तर्क वितर्क कर्कश मतिःसांगत्रयी पारगः,
वन्द्यो..........................................................2।।
लोकान्तस्तिमिरावलीं कवलयन् ज्ञान प्रभां बर्धयन्,
अज्ञान्वेद विदूषकाश्च शमयन् विज्ञान्जनान् हर्षयन्।
ज्ञानाकाश विभूषणश्च सविता भूमौ हि यो राजते,
वंद्यो........................................................3।।
द्रव्यस्पर्श विनैव जीवनमहो येषां गतं पावनं,
ब्रह्मोपासनया समृद्ध तपसा तेजस्विता यन्मुखे।
वैराग्याम्वुधि मज्जने हि निरतो दिव्यैव यस्य स्मृतिः,
वंद्यो........................................................4।।
यो चिन्ता मणिमालिकामनुपमां दृष्ट्वैव हर्षोत्सुकः,
सभ्यःसाधुशिरोमणिर्यतिवरःस्नेहेन वै भावुकः।
सद्यःशान्ति सुभाषितैःवितरको दिव्य प्रभा भासुरः,
वन्द्यो ज्ञान सुधाकरो गुरुवरो लक्ष्येश्वराख्यो यतिः।।5
साधूनां स्मरणं पुण्यं यत्तेषां हृदये हरिः।                                        तद्धरिदर्शनार्थं हि मयाकारि तु पंचकम्।।


            ।।श्री धर्म सम्राट् स्तवनम्।।
आदित्यो-निजतेजसा हिमकर-स्तापापनोदेन वै,भौमः शत्रुविदारणेन-सततं सौम्यश्च ज्ञानाकरैः।                       वाण्या देवगुरुःकविःसुतपसा सौरिश्च सत्येन यः,इत्थं सर्वविधैःग्रहैः विलसितःश्रीपाणिपात्रो यतिः।।1।।
स्वकीय तेजस्विता से जो सूर्य,मानव मन के संतापों को निश्चित दूर करने में जो चन्द्र,शास्त्र विरोधियों के  अभिमतों को विदीर्ण करने में (सेनापतित्वात्)भौम,ज्ञान संपदा में बुध,शास्त्र पूत वक्तृता में देवगुरु वृहस्पति,तपस्या में कविवर शुक्राचार्य,सत्य भाषण एवं न्यायप्रियता में शनिदेव,के समान हैं,ऐसे सर्वविध ग्रहों के तेज से सुशोभित पूज्य श्री करपात्री जी महाराज का दिव्य स्वरूप है।1।।
भक्त्या-भूषित-मानसं यतिवरं वैराग्य-वोधाश्रयं,ज्ञानाकाश-विभासकं-पटुतमं विज्ञान-भा-भासुरम्।                     सिद्धान्त-प्रतिपादने प्रतिपलं संरक्षणे तत्परं,वन्दे ज्ञानदिवाकरं हरिहरानन्दं सदा श्रद्धया।।2।।
भक्ति से भूषित मन वाले,ज्ञान-वैराग्य से संपन्न,ज्ञानाकाश को प्रकाशित करने वाले,विज्ञान के तेज से भासित अत्यन्त दक्ष,प्रतिपल सिद्धान्त के प्रतिपादन एवं संरक्षण में तत्पर,ज्ञानदिवाकर यतिश्रेष्ठ पूज्य श्री हरिहरानन्द सरस्वती जी महाराज को में सदा श्रद्धापूर्वक नमन करता हूं।।2।।
यो दृष्टवा भवसागरे निपतितं मोहान्धकारे जगत्,अज्ञाना-वृतमानसं विचलितं पाखण्ड पंकेरतम्।                              कारुण्येन समागतो नरवरे तद्रक्षितुं यः स्वयं,पूज्यो भावभरैःनृभिःप्रतिदिनं श्रीपाणिपात्रो यतिः।।3।।          अज्ञान से घिरे हुए,अतएव विचलित हो पाखण्ड रूपी कीचङ से आवृत,प्राणियों को मोहान्धकार रूपी भवसागर में पङे हुए देखकर करुणा से द्रवीभूत हो इस जगत की रक्षा के लिये,जो स्वयं 1नरवर में आये,ऐसे पूज्य श्री करपात्री जी महाराज समस्त प्राणियों के द्वारा भावपूर्वक नित्य पूजनीय(प्रणम्य) हैं।।              1-यद्यपि पूज्य श्री की अवतरण स्थली भटनी प्रतापगढ यूपी है,तदपि यहां नरवर को वरीयता देने का तात्पर्य है,जन्म के दो प्रकार शास्त्रों में कहे गये हैं, 1-विन्दु 2-नाद,(द्विधा वंशो विद्यया जन्मना च)पूज्य श्री का पावन यश विन्दु कुल की अपेक्षा नाद (विद्या,ज्ञान)कुल के कारण ही है,नरवर पूज्य श्री का विद्याकुल गुरुकुल है।
आर्यभ्रान्ति निवारणैक-कुशलो लोकस्य संरक्षकः,शास्त्रार्थ-प्रतिपादने च निरतो वादादि संयोजने।                                जात्या वर्णविधिर्न कर्मविहितः शास्त्रेष्वियानेव वाक्,इत्याख्यैः1सुवचैःप्रतिष्ठितयशाःश्रीपाणिपात्रो यतिः।4।1सुमतैः
    तथाकथित आर्य जनों के विचारों में आयी भ्रान्तियों के निवारण में कुशल,लोक के संरक्षक,शास्त्रों के परमपरागत समुचित अर्थ का प्रतिपादन करने तथा(वादे वादे जायते तत्व बोधः इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये) शास्त्रीय पक्ष का निर्धारण करने के लिये विचार गोष्ठी आयोजित करने में निरत,वर्ण व्यवस्था जन्म से होती है न कि कर्म से शास्त्रों में यही सिद्धान्त स्पष्टतया  सर्वथा वर्णित है,इत्यादि सम्यक मतों के प्रतिपादन से लब्ध प्रतिष्ठ पूज्य श्री करपात्री जी महाराज वन्दनीय हैं।4
संसारानल-तप्तमानसवतां कोसौ सुधानिर्झरः,भक्तानां-भगवानपूर्व-रुचिरो-वात्सल्य-कल्पद्रुमः।                        मोहग्राहग्रहीतमानसवतां मोक्षार्थ विद्यामणिः,सर्वाशापरिपूरको हरिहरो श्रीपाणिपात्रोयतिः।।5।।
संसाराग्नि में झुलसते प्राणियों को शीतलता प्रदान करने के लिये ये सुधा निर्झर के रूप में कौन हैं,भक्तोंके लिये अपूर्व मनोहर सर्वाशापरिपूरक भगवान,महामोह रूपी ग्राह के द्वारा जकङे हुये मन वाले प्राणियों की मुक्ति के लिये जो विद्या मणि हैं,(ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः) वात्सलता के कल्पतरु श्रीहरिहरानन्द सरस्वती स्वामीश्री करपात्री जी महाराज वन्दनीय हैं।5।
शैवानां-शिवतत्वनिष्ठ-रुचिरःसीताधवो राघवः,शाक्तानां समतामयश्च मधुहा राधाधवोमाधवः।                                  विष्णौ भक्तिमतां सतां शिवकरःश्रीवैष्णवःशंकरः,नोमेशो न हरी असौ हरिहरःसाक्षाद्यतीन्द्राधिराट्6
मानो शैवों में श्रेष्ठ शिवतत्व निष्ठ भगवतीसीता के स्वामी श्रीराम हैं,अथवा शाक्तों में समत्वभाव रखने वाले,मधुहन्ता राधावर श्रीकृष्ण हैं,या भगवान विष्णु में भक्ति भाव रखने वाले,सज्जनों का कल्याण करने वाले,श्रीवैष्णव देवाधिदेव महादेव ही हैं,अरे नहीं,ये न तो उमापति शिव हैं, न राम कृष्ण हैं, ये तो साक्षात् यतीश्वरो के भी अधिनायक पूज्य श्री हरिहरानन्द सरस्वती स्वामी श्री करपात्री जी महाराज हैं।1हरिश्च हरिश्च इति हरी-श्रीराम कृष्णौ,
धर्मस्य प्रगतिर्भवेदवनतिर्भूयादधर्मस्य च,सद्भावो मनुजेषु वै खलु सदा लोकस्य भद्रं भबेत्।                                           गोमातुर्विजयोभवेदथ च गोहत्या निरुद्धा भवेत्,इत्थं घोषकरः सदा विजयते योगीन्द्रवृन्दाधिराट्।।7।।
धर्म की जय हो,अधर्म का नाश हो,प्राणियों में सदद्भावना हो,विश्व का कल्याण हो,गौ माता की जय हो,गो हत्या बन्द हो,इस प्रकार की घोषणाओं से जनमानस के हृदय में दिव्य भाव का जागरण करने वाले,योगीकुल के अधिपति पूज्य श्री करपात्री जी महाराज की सदा जय हो,
श्रीविद्यासमुपासकं गुरुवरं यज्ञात्मकं सिद्धिदं,धर्माधर्मविवेचकं श्रुतिपरं शान्तं परं दैवतम्।                 सिद्धान्तप्रतिमा-सनातनवपुः श्रीशंकरं नूतनं,पद्यैरष्टभिरद्य नौमि वचसा श्रीपाणिपात्रं यतिम्।।8।।
श्रीविद्या के समुपासक, यज्ञस्वरूप,वेद शास्त्र परायण,धर्म एवं अधर्म के समर्थ व्याख्याता,सिद्धिप्रदान करने वाले परम दैव,सनातन धर्म के सिद्धान्तों के साक्षात् विग्रह,शास्वत सत्ता वाले अभिनव शंकर,श्रीकरपात्री जी महाराज को अष्ट पद्य प्रसूनात्मक वाणी के द्वारा आज नमन करते हैं,।
1अष्टपाश निराशाय,सर्वेष्टसाधनायच।                                                                                                                                                     अन्तःकरण-शुद्ध्यर्थं-मयाकारि तदष्टकम्।।9
अष्ट पाशों के विनाश के लिये, सर्व इष्ट सिद्धि के लिये,तथा अन्तःकरण की शुद्धि के लिये                             मेरे द्वारा ये अष्टक रचा गया । 1,अविद्या,अस्मिता आदि,
                                                             श्रीगुरुकृपाधनसम्पन्नः                                         
                                                             त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्यः                           

तारणात् तरवःप्रोक्ताः,छेदनात् वृक्ष उच्यते।
पद्भिःपिवन्ति पानीयं,तस्मात् ही पादपाःमताः।।
स्वयं तीर्त्वा जले ये हि,तारयन्ति समाश्रितान्।
मज्जन्ति न कदाचित् ये,नान्यांश्च मज्जयन्ति वै।।
रोपको रोपणात्मुक्तः,मोचयति पितृन्स्वयम्।
सेचनात् तर्पणं प्रोक्तं,अग्निहोत्रं च पालनात्।।
दशपुत्र समो वृक्ष,शास्त्रेषु बहुधा मतः।
भुक्ति मुक्ति प्रसिद्धयर्थं,कुर्वन्तु वृक्षपालनम्।।
तरुनीरदयोःमैत्री,प्रीत्या वर्षन्ति नीरदाः।
वृष्टिं वांछन्ति चेत् विज्ञा,कुर्वन्तु वृक्षपालनम्।।
क्षेत्राणामुर्वरा शक्तिः,भूमेःसंरक्षणं तथा।
वृक्षेणैव सिद्धयन्ति,कुर्वन्तु वृक्षपालनम्।।
प्रकृतेःप्राण भूताःये,प्राणवायोः प्रवर्धकाः।
पर्यापरण शोधाय,कुर्वन्तु वृक्षपालनम्।।
प्राणिनां रक्षणं चैव,पक्षिणामाश्रयस्तथा।
ये कुर्वन्ति च वै तस्मात्,कुर्वन्तु वृक्षपालनम्।।
यदि सन्ति भुवौ वृक्षाः,जीवन्ति प्राणिनः समे।
वृक्षाभावे न पृथ्वी स्यात्,न नराःन च पक्षिणः।।


                                                                                                ।।विश्वनाथ।।
विश्वनाथःप्रसूःविश्वनाथःपिता,विश्वनाथःसुहृत् विश्वनाथःसखा।                                  विश्वनाथो-गतिर्विश्वनाथो-मतिः,विश्वनाथो ममोद्धारकःसद्गुरुः।।1।।
विश्वनोथो धवो विश्वनाथो धनं,विश्वनाथो नृपो विश्वनाथःप्रजा                                    विश्वनाथःप्रिय़ो विश्वनाथःप्रिया,विश्वनाथो............................।।2।।
विश्वनाथो व्रती विश्वनाथो व्रतः,विश्वनाथो नति र्विश्वनाथःस्तुतिः                          विश्वनाथो दिवा विश्वनाथो निशा,विश्वनाथो........................।।3।।
विश्वनाथःकविःविश्वनाथःकला,विश्वनाथःक्रतुःविश्वनाथःक्रिया।                                          विश्वनाथो-जटी विश्वनाथो जटा,विश्वनाथो...........................।।4।।
विश्वनाथो नभो विश्वनाथो धरा,विश्वनाथ-स्त्रुटि-र्विश्वनाथःक्षमा।                                         विश्वनाथःकपि-र्विश्वनाथःपपी,विश्वनाथो.................................।।5।।
विश्वनाथो दिशा विश्वनाथो दशा,विश्वनाथःप्रभु-र्विश्वनाथःप्रभा।                                        विश्वनाथःश्रुति-र्विश्वनाथःसुधीः,विश्वनाथो...............................।।6।।                                                                   


विश्वनाथःसदा भक्त संरक्षकः,विश्वनाथं नुमः(भजे)सौख्य संप्राप्तये।                                                                    विश्वनाथेन कामो हतस्तेजसा,विश्वनाथाय तस्मै नमो नित्यशः।।1।।                                            विश्वनाथात् परं नास्ति लोके क्वचित्,विश्वनाथस्य भक्ताःवयं भावुकाः।                                                विश्वनाथे रतिः विश्वनाथे मतिः,नास्ति चेत् जीवने दुर्दशा दुर्गतिः।।2।।
कृष्णो नीलमणिः सदा विजयते कृष्णं कवीशं भजे,                                                           कृष्णेनात्र हतः निशाचरपतिः कृष्णाय तस्मै नमः।                                                               कृष्णान्नास्ति कलानिधिःखलु भुवौ कृष्णस्य दिव्या कथा,                                                                 कृष्णे बुद्धिलयःसदा भवति मे भो कृष्ण रक्षस्व माम्।।



वद वद-संस्कृतं,मनुजरे,वचसा-सततं,
पठ पठ-संस्कृतं,सुजनरे,मनसा-सततम्।
लिख लिख-संस्कृतं,सकलपाप-धुताशयदं,
शृणुशृणु-संस्कृतं,श्रवणरंध्र-गतंमधुरम्।।
हे मानव,तुम वाणी से निरन्तर संस्कृत बोलो,
हे सुजन,तुम मन से निरंतर संस्कृत पढो,
सकल पापों का शमन कर पवित्र अन्तःकरण देने वाली संस्कृत को लिखो, कर्ण कुहरों में प्रविष्ट  मधुरतम संस्कृत को निरंतर सुनो।।
नर्कुट छंद है,लोक गीत के समान गाया जाता है,
वेद स्तुति इसी छंद में है,
आज माता सीता का अवतरण दिवस है,,,सबको शुभकामनाओं के साथ माता सीता का चरण वंदन.
त्रिभुवन-मोहिनी,भगवती-वसुधातनुजा,
जनकसुता-शिवा ,सकलमंगल-मूलरमा।
दनुजकुला-धिपे, न्द्रकुलनाशकरी कमला,
जयजय मोक्षदा,विभवदा रघुनाथरता।।
त्रिभुवन को मोहित करने वाली,पृथ्वी पुत्री,भगवती सीता,कल्याण कारिणी जनकसुता,सकल मंगल प्रदान करने वाली रमा,राक्षसेन्द्र रावण के कुल का नाश करने वाली लक्ष्मी,भोग एवं मोक्ष देने वाली राघवेन्द्र श्री राम की परम प्रियतमा माता सीता की जय जयकार हो।   नर्कुट छंद है




                                                                मां
त्रिलोके नास्ति तत् साम्यं,तथा चैवेश्वरः कश्चित्।                                                                   यथा माता कृपा-मूर्तिः,भूतले संचरन्ति या।।1                                                                            भूतल पर विचरती हुई  कृपा की मूर्ति मां के जैसा तींनों लोकों                                                   में कोई ईश्वर नहीं,
प्रगाढं भाव सौन्दर्यं,सदा त्यागाय सन्नद्धा।                                                          समेषां पालनं कर्तुं,मनसि यस्याः परा श्रद्धा।।2                                                                   सदा उत्सर्ग के लिए तैयार,सभी का पालन करने की मन में परम                                             भावना लिये,प्रगाढ भावों का सौन्दर्य है मां।।
न हर्षःस्वार्थ हेतोःहि, न शोकःस्वार्थ हेतोःहि।                                                                                  सदा संतान हेतोः हि प्रसन्ना यापि खिन्ना वा।।3                                                       अपने लिये न हर्ष न शोक, जो केवल संतान के कारण ही खिन्न और                                    प्रसन्न होती है,अर्थात् सन्तान खुश तो मां खुश,संतान दुखी तो मां दुखी।।
न भोक्तुं लालसा यस्याः,परार्थं जीवनं पूर्णं,                                                          व्रतं वापि तपश्चर्या,परेषां वै कृते नित्यम्।।4।।                                                      अपने लिये कभी कुछ न चाहने वाली, परमार्थ पूर्ण,व्रत या                                    अन्य कोई तप भी होगा तो वो भी दूसरों के ही लिये।।(शायद                                  मां ही ऐसी होगी दुनियां में जिसने आज तक अपने लिये कभी                                            कुछ न मांगा होगा,उपासना करेगी तो कभी पुत्र के लिये, कभी                                            पति के लिये, कभी पिता के लिये,कभी भाई के लिये,आप देख ले                                          झोली भी फैलायी होगी तो औरों के लिये ही,अपने लिये कभी कुछ नहीं )
इयं यज्ञः इयं पूजा,इयं सिद्धिरियं साध्या।                                                             परेशस्य प्रभामयी मा ,सदा सौम्या च सरला या।।5                                                       सदा सौम्य एवं सरल परमात्मा की प्रभा स्वरूपा मां ही यज्ञ, पूजा, सिद्धि, तथा साध्य है।।
न सृष्टौ काचिदन्यास्ति,सदोषे बालके प्रीतिः।                                                         सदा वात्सल्य भावेन,दुखं सोढ्वापि संहृष्टा।।6                                          दुनियां में मां के अलावा और कौन है, जो दोष होने पर भी बालक पर प्रेम ही करें,                            सौ सौ दुख सहकर भी प्रसन्नता पूर्वक सदा वात्सल्य वरषाती रहे।।
धरापि संभवेत् क्रुद्धा,नगोपि संचरेत् केन्द्रात्।                                                    वरं सिन्धुः भवेत् शुष्कः,कदापि माता नो रुष्टा।।7                                          कदाचित् पृथ्वी क्रुद्ध हो जाये,पर्वत अपने केन्द्र से विचलित हो जाये,भले सागर                   सूख जाये,परन्तु मां कभी रुष्ट नहीं हो सकती,(क्वचिदपि कुमाता न भवति)हित भाव को मन में रखकर कदाचित् नाराज होकर डाट दे पीट भी दे,परन्तु अकेले में बैठकर रो लेगी,।।
पिता भ्राता सुतो बन्धुः,सखा सर्वेश्वरो माता।                                                                     धनं विद्या यशः सौख्यं,कथय किं नास्ति भो माता।।8                  पिता,भ्राता,पुत्र,बन्धु,सखा,सर्वेश्वर,धन,विद्या,यश, सौख्य,सबकुछ मां ही है,विचार                              करें माता के अतिरिक्त कुछ और है क्या,मां शब्द संसार का सबसे मधुर शब्द है                                ,इतना माधुर्य इतनी कृपा,इतना समर्पण,कहीं न मिलेगा,सोचो मां न होती तो क्या होता,क्या हम आप होते,क्या ऋषि मुनि सिद्ध देव होते,क्या ये दुनियां होती,ये सकल प्रपंच मां के संकल्पों का ही विस्तार है,हम तो डंके की चोट कहते हैं,यदि मां न होती तो वह निराकार परमात्मा साकार न होता,आप के मन में शंका हो तो जान लीजिये,निर्गुण निराकार ब्रह्म को सगुण साकार होने के लिये, पिता की आवश्यकता नहीं परन्तु मां की है,।।भगवान भी कहते हैं मैं अपने भक्त की रक्षा ऐसे करता हूं जैसे मां अपने बालक की करती है,(करहुं सदा तिन कै रखबारी,जिमि बालक राखहि महतारी)

मां
असंस्कृतं तिरस्कृतं सुवासना-तिरंजितं,
मनोनुकूलतापरैःनिजेन्द्रियैःपराजितम्।
यथा-तथा-वृथा-कथासु निर्गतं हि जीवनं,
शिवादि-वंदिते-शिवे शिवं करोतु साम्प्रतम्।1
सदा-मुदा-अदयान्वितःसुभोग-रोग-पालकः,
विपत्परंपरा-परो विनाश-चक्र-चालकः।
विवेक-शून्यतां-गतो विवेक-तत्व-छालकः,
कदा सनाथता-मुमे गमिष्यतीह बालकः।।2
श्रुतं मया समुन्नतं यशो विपाक नाशकं,
निराश,हासशून्यचित्तभासकं प्रकाशकम्।
विलासितामहागभीरसागरे निमज्जितान्,
निजान्जनान्सुरक्षणे हि तत्परं सुशासकम्।।3
यदा-सुपंक-पंकितं-रजादि-राशि-रंजितं,
मलादिभिःमुखोद्भवैःसुलिप्त-मत्त-मर्भकम्।
विलोक्य-लोकमातरःप्रयान्ति-दूरतो-न हि,
जलेन-तत्मलं-विशोध्य वै नयन्ति मन्दिरम्।।4
तदा-कथं-दयापरे नु दीनता-विदारिणी,
निधीश्वरी-निजेश्वरी-त्रिलोक-लोक-तारिणी।
सुतं-निजं-विमोह-कान्ध-गह्वरे-निमज्जितं,
विलोक्य शारदे हि मां न तारणे मतिस्तव।।5
अहो-विमोह-कर्दमे-हि-काम-केलि-कुण्ठितं,
प्रलोभ-दुर्गुणेन-कीर्ति-तस्करेण-लुण्ठितम्।
रजोगुणे-तमोगुणे-भृशं-विपाक-पातितं,
विशोधय-स्वकीय-मोद-वारिणा-समुज्वले।।6
न-मेस्ति-कोपि-भूतले-सहायकाःपिता-सुहृत्,
तवावलंबनं-हि-लोक-रक्षकं-प्रकीर्तितम्।
यदा न मे हि वत्सले सुपालनं विधास्यति,
तवैव निन्दनं शिवे समंततो भविष्यति।।7
अचिन्त्य-चारु-चन्द्रिके-शिवेन्द्र-संग-शोभिते,
गणाधिपेश-देवतेश-वन्दिते-शुभाम्बरे।
विराग-राग-राजिते-रसेन्द्र-राशि-सज्जिते,
स्वभक्त-चित्त-चेतनां चमत्करोति चिन्तनात्।।8
त्र्यम्बकःस्वष्टपुष्पाणि,समर्पयतिसादरम्।
मातुर्वात्सल्य लोभेन,साधुत्वमभिवर्धितुम्।।9
पंचचामर छंद की रचना है,ताण्डव वत्,सुधीजनों के सेवार्थ है,पढकर किसी एक का भी प्रसन्नता से मुखकमल खिल उठे ,हृदय में आनन्द का संचार हो जाये,तो ये प्रयास सफल होगा,हमें तो बहुत अच्छा इसलिये लगता है क्योंकि जब ये काव्य गंगा धारा लेखनी रूपी गोमुख से कागज रूपी धरातल पर उतर रही थी,तब एक गंगा और बह रही थी प्रेमाश्रु गंगा......निज कवित्त केहि लाग न नीका,सरस होहि अथवा अति फीका।।परन्तु ये तो भाव प्रवाह है..क्षमा करें मन भाव में वह गया......... 

मदीयोग्रामः(ह्यःआसीत्)
मदीये ग्राम-मध्ये ये,जनाःशिष्टा वसन्ति-स्म,
सदा ते भावुका-भक्ताः,विरक्ताःभोग-विषयेषु।
सदा परमार्थ-चिन्तायां,सुलग्नाःदत्त-चित्तास्ते,
शुभास्ते सात्विकाःसभ्याः,मृदुभाषां वदन्ति-स्म।।
मदीये ग्राम-मध्ये ये,जनाःशिष्टाःवसन्ति-स्म।।1
सुप्रौढाःशास्त्र-चर्चायां,नवोढा-गृह्यकृत्येषु,
युवानो-राष्ट्र-सेवायां,युवत्यो-वृत्त-रक्षासु।
समेपि बालकाः भक्ताः,तथा च बालिकाःभक्ताः,
तदा तु निर्भयाःसर्वे,प्रसन्नाःसंभ्रमन्ति-स्म।।
मदीये ग्राम-मध्ये ये,जनाःशिष्टाःवसन्ति-स्म।।2
तदीयं सात्विकं वित्तं,तदीयं सात्विकं चित्तं,
विशुद्धं भोजनं तेषां,विशुद्धं भाजनं तेषाम्।
जलं वायुश्च शाकं च,विशुद्धं धान्यकं दुग्धं,
बलिष्ठाःतत्र सर्वेपि,सदा स्वस्थाः रमन्ति-स्म।।
मदीये ग्राम-मध्ये ये,जनाःशिष्टाःवसन्ति-स्म।।3
तडागाःसागरायन्ते,जलस्य पूर्णतां प्राप्य,
शरदि ते पावनाःहृद्याः,यथैव साधवो भक्ताः।
वयं क्रीडा-रतास्तत्र,तरंगै-रुच्चलन्तीभिः,
पक्षिभिःपंकजैश्चापि,सदा शुद्धाः लसन्ति-स्म।।
मदीये ग्राम-मध्ये ये ,जनाःशिष्टाःवसन्ति-स्म।।4
फलैःपुष्पैश्च संपन्ना,महावृक्षावली तत्र,
विहंगाःबहुविधाःदिव्याः,रमन्ते कोटरेषु वै।
यात्रिणो-घर्म-संतप्ताः,क्षणं शान्तिं लभन्ते-स्म,
परस्पर-प्रीति-संपन्नाः,नराःनम्राःभवन्ति-स्म।।
मदीये ग्राम-मध्ये ये जनाःशिष्टाःवसन्ति-स्म।।5
धेनवो-दुग्ध-संपन्नाः,सवत्साःगोचरे मुक्ताः,
मन्दिरे ब्राह्मणाःविज्ञाः,प्रसन्नाःतेजसा-दीप्ताः।
युवानो-धर्म-संयुक्ताः,सदा सेवा-व्रताः शक्ताः,
समेषां सेवमानास्ते,वीथिषु संचलन्ति-स्म।।
मदीये ग्राम-मध्ये ये,जनाःशिष्टाःवसन्ति-स्म।।
परस्पर-प्रीति-संपन्नाः,नराःनम्राःभवन्ति-स्म।।6
अतीत के ग्रामीण परिवेष की कल्पना करने का प्रयास किया गया है,सुधीजनों को कुछ प्रसन्नता हो सकी तो प्रयत्न सार्थक होगा...इसे गीत का रूप दिया है...............
1बहारो फूल बरषाओ मेरा महबूब आया है,2-जगत के रंग क्या देखूं,तेरा दीदार काफी है,