Thursday 3 May 2012


मां
असंस्कृतं तिरस्कृतं सुवासना-तिरंजितं,
मनोनुकूलतापरैःनिजेन्द्रियैःपराजितम्।
यथा-तथा-वृथा-कथासु निर्गतं हि जीवनं,
शिवादि-वंदिते-शिवे शिवं करोतु साम्प्रतम्।1
सदा-मुदा-अदयान्वितःसुभोग-रोग-पालकः,
विपत्परंपरा-परो विनाश-चक्र-चालकः।
विवेक-शून्यतां-गतो विवेक-तत्व-छालकः,
कदा सनाथता-मुमे गमिष्यतीह बालकः।।2
श्रुतं मया समुन्नतं यशो विपाक नाशकं,
निराश,हासशून्यचित्तभासकं प्रकाशकम्।
विलासितामहागभीरसागरे निमज्जितान्,
निजान्जनान्सुरक्षणे हि तत्परं सुशासकम्।।3
यदा-सुपंक-पंकितं-रजादि-राशि-रंजितं,
मलादिभिःमुखोद्भवैःसुलिप्त-मत्त-मर्भकम्।
विलोक्य-लोकमातरःप्रयान्ति-दूरतो-न हि,
जलेन-तत्मलं-विशोध्य वै नयन्ति मन्दिरम्।।4
तदा-कथं-दयापरे नु दीनता-विदारिणी,
निधीश्वरी-निजेश्वरी-त्रिलोक-लोक-तारिणी।
सुतं-निजं-विमोह-कान्ध-गह्वरे-निमज्जितं,
विलोक्य शारदे हि मां न तारणे मतिस्तव।।5
अहो-विमोह-कर्दमे-हि-काम-केलि-कुण्ठितं,
प्रलोभ-दुर्गुणेन-कीर्ति-तस्करेण-लुण्ठितम्।
रजोगुणे-तमोगुणे-भृशं-विपाक-पातितं,
विशोधय-स्वकीय-मोद-वारिणा-समुज्वले।।6
न-मेस्ति-कोपि-भूतले-सहायकाःपिता-सुहृत्,
तवावलंबनं-हि-लोक-रक्षकं-प्रकीर्तितम्।
यदा न मे हि वत्सले सुपालनं विधास्यति,
तवैव निन्दनं शिवे समंततो भविष्यति।।7
अचिन्त्य-चारु-चन्द्रिके-शिवेन्द्र-संग-शोभिते,
गणाधिपेश-देवतेश-वन्दिते-शुभाम्बरे।
विराग-राग-राजिते-रसेन्द्र-राशि-सज्जिते,
स्वभक्त-चित्त-चेतनां चमत्करोति चिन्तनात्।।8
त्र्यम्बकःस्वष्टपुष्पाणि,समर्पयतिसादरम्।
मातुर्वात्सल्य लोभेन,साधुत्वमभिवर्धितुम्।।9
पंचचामर छंद की रचना है,ताण्डव वत्,सुधीजनों के सेवार्थ है,पढकर किसी एक का भी प्रसन्नता से मुखकमल खिल उठे ,हृदय में आनन्द का संचार हो जाये,तो ये प्रयास सफल होगा,हमें तो बहुत अच्छा इसलिये लगता है क्योंकि जब ये काव्य गंगा धारा लेखनी रूपी गोमुख से कागज रूपी धरातल पर उतर रही थी,तब एक गंगा और बह रही थी प्रेमाश्रु गंगा......निज कवित्त केहि लाग न नीका,सरस होहि अथवा अति फीका।।परन्तु ये तो भाव प्रवाह है..क्षमा करें मन भाव में वह गया......... 

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