Monday 5 March 2012

पाती बरषाने


पाती वरषाने सौं आयी,सुनतहि सुधि विसरायी।
उद्धव के कर देख पत्रिका,हिरदय हूक समायी।।पाती.....
अश्रु बिंदु जलधार बहत है,पतनारे की नायी।
श्रीराधाजू छवी मनोहर,नयन पटल पर छायी।।पाती......
रोम रोम खिल उठो प्रीत सौ,भूल गये ठकुरायी।
नित्य कुंज की निलयन लीला,राधा संग सगायी।।पाती.......
मान मनावन चरण पलोटन,नित्य नयी पहुनायी।
पुष्प चयन कर नित नूनत ही,राधा केश सजायी।।पाती.....
गौर श्याम दौ धार प्रणय ज्यो,गंग जमुन परछायी।
प्रीत सिंधु शुचि सुधा बिंदु हित,त्र्यंबक करत दुहायी।।पाती...


Sunday 4 March 2012


कहां तुम छिपे हो दिखाके झलक,कहो तो पिया हम मरें कब तलक।
भरोसे तुम्हारे ये जीवन मेरा,रहूं अब कहां छोङ दर ये तेरा।
तरसते ये नैना न गिरते पलक।कहो तो...........।।1।।
तुमने सौ बार हमसे ये वादे किये,और मिलने के छिपछिप इरादे किये।
न तो खुद तुम मिले,न मिलन की ललक।कहो तो...........।।2।।
मैने संसार छोङा था तेरे लिये,तुमको साथी चुना सात फेरे लिये।
ग्रन्थि बन्धन किया किया था तिलक।कहो तो.............।।3।।
बना ही लिया तेरी वंशी ने मन,वश हूं तेरे तू ही जीवन का धन।
हो गया तन पुलक ये लटकती अलक।कहो तो...........।।4।।
आज त्र्यम्बक भी खुश हो गया है तेरा,सांवरे मन चुराया जो तुमने मेरा।
खिल उठा आज फिर हृदय का फलक।कहो तो................।।5।।

चहरे को खिलने दे खिले फूल जैसा तू,वक्त चाहे जैसा हो मुस्करा हमेशा तू।
कौन जमाने में दुख नहीं पाया,दर्द की माला ले दर नहीं आया
श्याम की शरण में आ हो ना रुआंसा तू।।1।।
होली दिवाली सब दिनरात आते,चांद सितारे भी नभ झिलमिलाते।
देखता तमाशा जा,बन ना तमाशा तू।।2।।
और के लिये जी सांस अनमोल रे,जाते हर सांस पर राम कृष्ण बोल रे।
मौज में बिताता जा जिंदगी अभय सा तू।।3।।
जन्म और मौत भी संग संग चलते,पुण्य पापों दोंनों फलते ही फलते।
खुशियों के गीत गा छोङ दे निराशा तू।।4।।
विप्र की चरण रज सिर पर तू धार रे,भक्ती की नौका चढ उतर तू पार रे।
दिव्य चेतना के अंश हो गया रे कैसा तू।।5।।

में हार गया जग से,हरि आ जाओ एक बार।
तेरे दर्शन को तरसा ,में पङा तेरे दरबार।।1।।हरि आ जाओ एक बार..
नहीं दोष देखना मेरे,दोषों पर ना जाना।
में पापों का पुतला हूं,सब दुनिया ने माना।।
है मलिन बहुत मन मेरा,रो करता यही पुकार।।2।।हरि आ...
है एक भरोसा ये ही,तुम सबके रक्षक हो।
तुम बिगङी बनाते हो,पापों के भक्षक हो।।
पतितों के सहारे हो,सब कहता ये संसार।।3।।हरि आ...
है नाम बहुत तेरा,अधमों को बचाने में।
नहीं कोई दूसरा मुझसा,पापी है जमाने में।।
हे करुणा के सागर,अब कर भी दो उद्धार।।4।।हरि आ...
हम चाहे जैसे हैं, हैं तो तुम्हारे ही।
सब स्वर्ग नरक गतियां,हाथों हैं तुम्हारे ही।।
है भव सागर फैला,कर आज तेरे पतवार।।5।।हरि आ...
कुछ भी तो नहीं वश में,वेवश वेचारा हूं।
था भवन गगन मेरा,मैं गिरा सितारा हूं।।
मेरे दोष क्षमा करके,अब कर लो फिर स्वीकार।।6।।हरि आ....

राह में अंधेरा है दीप तू जलाता जा,प्रेम के दीवानों को रोशनी दिखाता जा।
खिलता है प्रेम पद्म दुःख के दरिया में,दर्द भरा है गहरा प्रीत की बदरिया में।।
बिछङे हुये जो राह संग तू मिलाता जा.प्रेम के.............।।1।।
शक में ना नाश कर जिन्दगी तू बाबरे,भले ही भरोसे में उलट जाये घाव रे। 
टूटे हुए दिल को तू  दिलासा दिलाता जा,प्रेम के............।।2।।
बदरंग हुए है लोग बदली हैं भावना,वन में भी मिलती अब बरगदों की छांव ना।
लाना ना निराशा तू प्रेम पट सिलाता जा।प्रेम के..............।।3।।                                                         जलता जमाना सब बदलेकी आग में,खुशियों के राग भूल रोता क्यों तू फागमें।
प्यास बङी गहरी है,प्रेमरस पिलाता जा।प्रेम के..................।।4।।
जिंदगी अधूरी है बिना प्रेम रंग के,पूर्ण हुआ कौन यहां बिना प्रेम सग के।
रोप के तू प्रेम वृक्ष खिलता खिलाता जा।प्रेम के.............।।5।।
जीवन तो चलना है रुकना ही मौत है,प्रेम रसधार प्यारे प्रेम नयी जोत है।
रुकना ना त्र्यम्बक सुन चलता चलाता जा।प्रेम के.........।।6।।


मौत आके खङी सिर पै तेरे,झंझटों में कहां तू पङा है।
छोङ देंगे ये साथी सहारे,जिनपे तुझको भरोसा बङा है।।
ये चमकती चकाचौंध पल की,जैसे चपला चमकती गगन में।
देख बचपन जवानी गयी रे,जैसे बीता हो सबकुछ सपन में।।
हरि को भज ले रे पागल समय है,पूरा होता उमर का घङा है।।1।।
कभी हंसता है रोता कभी है,मान अपमान में ही फंसा है।
लाभ हानि में तुलता है हरपल,मन में संसार तेरे बसा है।।
राह को तू न मंजिल समझ रे,क्यों तमाशा लगाके खङा है।।2।।
एक मिट्टी है ये आशियाना,एक मिट्टी का तन ये सुहाना।
सोना चांदी भी मिट्टी है प्यारे,और मिट्टी में सबको समाना।।
जब भी संसार से तू लङा है,एक मिट्टी की खातिर लङा है।।3।।
हरि ने मानव हमें है बनाया,जाल माया का सब काटने को।
पशु के जैसे हमारे करम क्यों,व्यर्थ विषयों का विष चाटने को।।
है ये अनमोल मंदिर सा तन रे,प्राण हीरा हरि ने जङा है।।4।।
ऐसे रहके जगत में तू खिल रे,जैसे कीचङ में खिलता कमल है।
अपनी पहचान खोना नहीं रे,(जग में गुमनाम होना नहीं रे)                                                                    जङ नहीं तू तो चिन्मय विमल है।।
एक झटके में ममता को तज दे,फैसला ये बहुत ही कङा है।।5

नगेशो नागशो नगपतिसुतेशो नटवरो,नराणामीशेशो नवनिधि निवेशो ननु नृपः।
नदीशो नित्येशो निरयनृपतीशो निगमवाक्,निरोशो नो नेयात् निजजननिवासे नगपतौ।।1।।
महादेवो मान्यो मदनमथनो माधवमतिः,महोक्षाध्यारूढो मणिमय महामण्डप युतः।
महावीरो मुख्यो मनुजमतिमालिन्यमलयो,महेशो मुक्तेशो मम मनसि निष्ठो भवतु मः।।2।।          शिवःशांतःसत्यःसकलजनवंद्यःश्रुतिनुतः,शमीपत्रैःपूज्यःसरसिजकुलैश्चापि सलिलैः।
सदा शैले शुभ्रे निवसति सदानंदसहितः,समाधिस्थःसिद्धःशशिसकलशीर्षःसमवतु।।3।।
वरिष्ठो विश्वेशो विषधरवरैःभूषितवपुः,विदग्धो व्याख्याने वचनरचनाविज्ञवरदः।
विरागाख्ये वित्ते विपुलविभवो वंदितवरो,वरेण्यो वागीशो वरवृषभवाहो विजयते।।4।।
यदृच्छासंतुष्टो युवतिशतयूथेनभरितः,यजुर्वेदज्ञैःवै यमनियम मार्गेण कलितः।
यथेष्टं यत्द्रव्यं वितरतु च यक्षाधिपपतिः,यतीशो यज्ञेशो यदुकुलपतेर्माधवसखा।।5।।
        पंचाक्षरात्मकं पुण्यं,स्तोत्रं भक्तिप्रवर्धकम्।
       महादेव प्रसादार्थं , कुरुते त्र्यंबकःसुधी।।

आरक्षणम्




             आरक्षणम्
स्वाथ्य शिक्षा सुरक्षासु चारक्षणं,राष्ट्र हेतोःकथं नापि सिद्धिप्रदम्।
ते पठेयुःनिशुल्का सदा तत्पराः,ज्ञानयुक्ताःभवेयुःसमर्थाःसमे।।1।।
योग्यतायाःसदोदार-चित्तेन वै,मान वर्धापनं लोकसिद्धयै भवेत्।
योग्यतायाःउपेक्षा न लाभास्पदं,कुंठिता योग्यता नो विकासप्रदा।।2।।
स्वास्थ्य-केन्द्रेषु मंदाःयदा रोगहाः,रोगिणःरोगमुक्त्यै यतेयुःकथम्।
ते गमिष्यन्ति देशांतरं पीडिताः,राष्ट्रवित्तं तदा वै विदेशं व्रजेत्।।3।।
शिक्षकाः योग्यताधारहीनाःयदा,राष्ट्र निर्माणमूलाःतदा बालकाः।
ज्ञानहीनाः शुभाचारहीनाःसमे,दीनचित्ताःप्रवृत्ताःकुकार्येषु ते।।4।।
शौर्यशून्याःसुदीनाःयदा रक्षकाः,राष्ट्रसीमा सुरक्षापि शंकास्पदा।
राष्ट्रविध्वंसकाःहिंसकाःजाग्रताः,चौर्यवृद्धिश्च देशे तदा वै भवेत्।।5।।
निर्धनाःयोग्यतापूर्णवित्ताःजनाः,ते समे संभवेयुश्च लाभान्विताः।
येन राष्ट्रीय चित्रं पवित्रं भवेत्,आर्थिकं वै भवेत् नैव जात्या भवेत्।
जातिमूलं विनाशाय चारक्षणम्।।6।।
भोजनं भाजनं पुस्तकं विष्टरं,शुल्कशून्यं समं सर्वकारः क्रियेत्।
योग्यतामर्जयित्वा तदा शिक्षिताः,मानयुक्ताः नियुक्ताः भबंतु स्वयम्।।7।।

Saturday 3 March 2012


शाम को अब ना जलाते दीप वो,दिल विचारा दीप बनकर जल रहा है।1।।
ये घोंसले क्यों सब हुए वीरान हैं,आस्तीने नाग छिपकर चल रहा है।।2।
पतझङ बिना क्यों आज उजङा है चमन,साखपर उल्लू ये देखो पल रहा है।।3।।
न्याय क्यों ये मुख छिपाके है पङा,आज शकुनि धर्म को फिर छल रहा है।।4।।
सीता हरण में राम का खुद हाथ है,रावण विचारा हाथ देखो मल रहा है।।5।।
मदहोश हैं कुर्सी पै बैठे लोग सब,सत्य सत्ता को सही में खल रहा है।।6।।
छीन लेता है निवाला हाथ से,इंसान किस सांचे में अब ये ढल रहा है।।7।।
है खून की वरषात देखो हरतरफ,पाप का बरगद स्वयं ही फल रहा है।।8।।
क्या पता कितना गिरेगा आदमी,स्वाद की खातिर पशु को तल रहा है।।9।।
ये क्या हुआ इमान को बीमार है,जिश्म पैसे में यहां जो मिल रहा है।।10।।
जो सादगी में जी रहा वो रो रहा है,हर तरफ हैवान ही तो खिल रहा है।।11।।


राष्ट्र रक्त मांगता सुशान्ति हेतु हे मुने,क्रान्ति के बिना कभी न शान्ति लोक में सुनी।
नीति शक्ति की सदा सहायता है चाहती,शक्ति के बिना न प्रीति आरती उतारती।।1।।
हाथ खोल दो उठो मशाल क्रान्ति की बनो,सामने दिनेश हो निशेश या निशीथ हो।
आंधियां चले कहीं प्रवाह राह रोकता , सांस से समुद्र को सुखा सको अगस्त्य हो।।2।।
भीति से भयंकरी न दीनता सुनी कहीं , वीरता यशस्विनी तरंगिणी सदा रही।
सन्त भाव ठीक है विरक्त मण्डली रहे,क्रूरता कलंक को समर्थ व्यर्थ क्यों सहे।।3।।
हिन्दुओ उठो अभी,न मोह न विषाद हो,वज्र सा विशाल वक्ष धीर सिंहनाद हो।
गाय ना कटे कहीं न भूख में पङी रहे,सभ्यता हमारि द्वार नन्दिनी खङी रहे।।4।।
जिन्दगी न खाक हो संभाल लो स्वयं खिलो,आलसी वयार राह रोकती चलो हिलो।
क्षम्य भाव ठीक है परन्तु शक्ति हो तभी,शक्ति हीन मानवी क्षमा नहीं सही कभी।।5।।
धान्य धैर्य धर्म हो धनार्थ दिव्य कर्म हो,सन्त विप्र के कृपा प्रसाद का सुवर्म हो।
शौर्य सत्य से सजा सुवृत्त चित्त नर्म हो,गर्व तो करो कभी न एकमात्र चर्म हो।।6।।

संस्कृतम्


                                                                                                                  
                            संस्कृत भाषा
राष्ट्र भाषा भवेत् भारते संस्कृतम्,विश्वभाषा भवेत् भूतले संस्कृतम्।
लोकभाषा च लोकेषु वै संस्कृतम्,राज भाषा च राज्येषु वै सस्कृतम्।।
                       लोक भाषा च लोकेषु वै संस्कृतम्।।1।।
सृष्टि काले प्रभाते यदा केवलं,मातृ भाषा बभूव प्रियम् संस्कृतम्।
नैव भाषा तदानीमभूत् भूतले,प्राणिमात्रस्य भाषा अतः संस्कृतम्।।2।।
वैदिकं संस्कृतं लौकिकं संस्कृतं,अद्वयं द्वैत भावेन संलभ्यते।
वैदिके पात्रता-पात्रता-पेक्षिता, लौकिकं लोकभाषेति संसिद्ध्यते।।3।।
आदि राज्ञो मनोःमानवी संहिता,संस्कृतेनैव साकारतां सागता।
मानवीया तु भाषा स्वतःसंस्कृतं,आद्यतःसंस्कृतं अंततःसंस्कृतम्।।4।।
भोजराजस्य राज्ये मुदा सर्वदा,कालिदासादि गोपान्त सर्वे जनाः।
शास्त्रवादे विवादे विहारेषु वै,संस्कृतं भाषमाणाः भवन्तिस्म वै।।5।।
वेदवेदान्तयोर्वाक् यथा संस्कृतं,आद्यकाव्यस्य भाषा तथा संस्कृतम्।
काम सूत्रादि मोक्षान्त सर्वाःकथाःसंस्कृतस्यैव कीर्तेःप्रसारे रताः।।6।।
संस्कृतस्य प्रचारो भवेत् भूतले,संस्कृतस्य प्रसारो भवेत् भूतले।
धर्ममूला च सर्वेषु सद्भावना,संस्कृतेनैव शक्या सुसंरक्षिता।।7
(मानवीया विशाला सुहृत् भावना,संस्कृतेनैव शक्या सुसंरक्षिता)
संस्कृतेःसभ्यतायाश्च संरक्षणं।ज्ञान वैराग्ययोश्चापि संवर्धनम्।
विश्वशान्ते-रुपायोपि संस्मर्यतां,संस्कृतेनैव संभातितो भूतले।।8।।
भौतिकी प्रोन्नतिःधार्मिका चोन्नतिः,आणवीयास्मदीया तथा ह्युन्नतिः।
आत्मरक्षा तथा सौख्य दीक्षा कला,शाश्त्रशिक्षा तथा शश्त्रशिक्षा विधा।।
संस्कृतेनैव सिद्धाः समस्ताः क्रियाः,यंत्र मंत्रेषु तंत्रेषु वै संस्कृतम्।।9।।




                                    

निंदक हितकारी

अहो मुखर निंदक भी तो हितकारी हैं,
घटा रहे हैं पाप बङे उपकारी हैं।
अनुचित कर्म बने जो हमसे,बिना भोग वो काट रहे।
इतना कोमल हृदय है उनका,दुष्कृत मेरे बांट रहे।।
               कटुक करेला जैसे पर गुणकारी हैं।।1।।
सबके चहरे चमकाता पर,जूना खुद गंदा रहता।
जूने को आदर्श बनाकर,मन के मल को ये गहता।।
              नहीं विरोधी सचमुच ये सहकारी है।।2।।
मन जब कभी विकारयुक्त हो,कुत्सित पथपर जाता है।
तभी सजग सहचर की भांति,ताने मार जगाता है ।।
              ये रक्षक हैं हम इनके आभारी हैं ।।3।।
सौ सौ साल जिये ये प्रियवर,नीरोगी सुखधाम चरें।
अपने पुण्य सभी औरों को , ऐसे ही प्रतिदान करें।।
              मंत्रमयी सी प्यारी इनकी गारी हैं ।।4।।
सदा इन्हें सम्मान पूर्वक,महल बनाकर पास रखें।
बिना सलिल अरु साबुन के ही,शुचिता का हम स्वाद चखें।।
              पुण्य लुटाते ये अद्भुत व्यापारी हैं ।।5।।
निंद्य गती के अवरोधक ये,अहंकार के बाधक हैं।
जग से मन को उदासीन कर,भक्ति पंथ के साधक हैं।।
              पावक हैं ये प्रतिफल में शुभकारी हैं।।6।।
सावधान प्रतिफल करते हैं,दर्पणवत् सच्चाई कह।
दोषरहित जीवन हेतू ही, प्रेरित हो अच्छाई कह ।।
             फिर क्यों डरते इनसे नरनारी हैं।।7।।
अरे पिता की गोदी से हट,वचन वाण जो नहीं झिले।
ध्रुव का मान सुरुचि पर निर्भर,जिससे श्रीभगवान मिले।।
              हाथ जोङ लो जिसके ये अधिकारी हैं।।8।।
माता केकई ने रघुवर से,अवध मात्र का राज लिया।
बदले में वनवास बहाने , जगती का सम्राट् किया ।।
   निंदा ही तो इनकी पूजा सारी है।।9।।
काट रहे हैं समय विचारे, समय इन्हें ही काट रहा।
ये बांट रहे हैं मानवता को,समय इन्हें ही बांट रहा।।
              दीन विचारे इनकी ये लाचारी है।।10।।
ये राह रोकते बनकर शत्रु ,पर मजबूत बनाते हैं।
आत्म परीक्षा का मौका दे ,दृढता रंग चढाते हैं।।
जो कमजोर बने मन के हैं,वे ही तो घबराते हैं।
जिनकी रगरग में शुचिता है,वे अविचल शुभ पाते है।।
              सदा सुनिश्चय से ही निंदा हारी है।।11।।

Thursday 1 March 2012


मुझे अब याद आता है,मेरा खुशियों भरा बचपन ।
वो फूलों से सजी क्यारी,तितलियों से भरा उपवन।।
लङा करते थे पलभर में,मिलन पलभर में होता था,
झटककर दूर सब आफत,सदा निश्चिन्त सोता था।
न थी अपमान की चिन्ता,न झंझट से भरा जीवन।।1।।
बङा मासूम सा चहरा,बेइन्तहा सोख व चञ्चल,
चहकता था परिन्दों सा,नदी की लहर सा कलकल।
अजनबी सा जमाने में,खिले फूलों सा जगमग मन।।2।।
न था दुश्मन कोइ अपना,नहीं कुछ खोने का भय था,
चाह यश की न कोइ थी,नहीं जीवन में अब अभिऩय था।
छिपाने को नहीं कुछ था,खिली ज्यों फूल पर शवनम।।3।।
वही मिट्टी घरोंदा फिर ,वही फिर धूल में सनना,
नदी तट खेलना दिन भर,मधुर मोरों का स्वर सुनना।
आंव की छांव को तङफा,आज करता है मन क्रन्दन।।4।।
लगे अब रोग सौ सौ हैं,विषय विष से विषैला तन
कहां बचपन की पावनता,कहां दुर्भाव मैला मन।
छोङकर वासना अपनी,भरें खुशियों से फिर दामन।।5।।
न था गन जिन्दगी में तब,गर्व की थी न तब छाया,
खेलना गुड्डा गुङियों का,गेंद बल्ला भी अपनाया।
सिपाही चोर की क्रीङा,वही झगङा वही अनबन।।6।।
वही वर्षा का मौसम हो,वही फिर भीगना दिनभर,
डाटना प्यार में मां का,हाथ रखना मॆरे सिर पर।
गरजना बादलों का सुन,मचल उठना करूं दर्शन।।7।।
नहीं था अपना कुछ भी तो,लगे संसार अपना सा,
कहां वो खो गया जीवन,जो बीता एक सपना सा।
करें क्या अब बता त्र्यम्बक,मिले फिर वो ही अनापन।।8।।


जन जागृति महानुष्ठान


आज जब पूरे भारतवर्ष में चारों ओर त्राहि त्राहि मची है।निराशा का घनघोर अन्धकार टिमटिमाती जीवन ज्योति को अपनी क्रूर चेष्टाओं से हतोत्साहित कर नष्ट कर देना चाहता है।तब अपने तुच्छ स्वार्थों को परमार्थ रूप यज्ञाग्नि में भस्म करके(स्वार्थ को सर्वार्थ में विलीन करके)समाज के लिये  कुछ करने का सत्संकल्प एवं सद्भाव मन में रखने वाले उन युवाओं का हम आवाहन करते है।जिनके हृदय में राष्ट्र्प्रेम का भाव समुद्र हिलोरें मारता हो।जिनकी दृष्टि में राजभक्ति की अपेक्षा राष्ट्रभक्ति सर्वोपरि वन्दनीय हो।जिन्हें संसार के जंजाल से अनजान अजन्मा निरपराध बच्चियों की भ्रूणहत्या के          जघन्य पाप का काला कलंक पीङा पहुँचाता हो,वात्सल्यमयी गौमाता की दुर्दशा जिनके हृदय को व्यथित कर जाती हो,जो गौ रक्षा को अपनी अस्मिता की रक्षा मानते हो,जिन्हें पर्यावरण संरक्षण (नदियों की पवित्रता एवं वृक्षों की सुरक्षा) के प्रति अपने दायित्व का बोध हो,जो अनाथों,असहायों, दुर्बलों,निर्धनों,विकलांगों के प्रति आदर भाव रखकर सहयोग की इच्छा रखते हो,जिन्हें अत्याचार एवं भ्रष्टाचार के घने अंधेरे को मिटाने के लिए दीपक की भांति जलना मन्जूर हो,जिनकी कथनी और करनी में यथा संभव समानता हो।एसे ओजस्वी, निर्लोभी,निर्भय, निरालस्य,स्वाबलम्बी नवयुवक आगे  आये। हम सब मिलकर स्वार्थ से सर्वार्थ की  ओर वढे क्योंकि विविध इकाईयों का समूह ही समाज होता है।अतः समाज के सर्वविध अभ्युत्थान के लिए प्रत्येक व्यक्ति को संकारित होना चाहिए।इस प्रकार सम्पूर्ण राष्ट्र संस्कारित, दिव्य,भव्य एवं वंदनीय होगा ।                                                   हम चाहते हैं गौ हत्या एवं भ्रूणहत्या के विरुद्ध सत्यवादी वृद्धजनों के आशीर्वादों से संपोषित,सच्चरित्र अनुभवी प्रौढों द्वारा सम्प्रेरित एवं नियन्त्रित,राष्ट्रभक्ति संपन्न उत्साही विवेकशील युवाओं की निःसीम शक्ति का एक अपूर्व संगठन।

लगालें बंदिशे पर्वत


लगालें बंदिशें पर्वत धार क्या रोक पायेंगे।
सुकूं होगा जहां दरिया वहां खुश होके जायेंगे।।
जमाने के लगे पहरे बांध भी सैकङों चाहे।
मगर मन की उमंगों को सवर कैसे दिलायेंगे।।
जहां को जो करे रोशन फैलकर सारी दुनिया में।
बुरी सूरज जगह सौ है किरण कैसे बचायेंगे।।
तरंगें सच समुंदर की मगर तूफान है मन में।
चीरकर तीर का सीना लिखे गम गीत गायेंगे।।
असर होता नहीं क्यों अब  किसी की बात का बिल्कुल।
मना तुमको करेंगे पर हाथ खुद आजमायेंगे।।
सभी उपदेश सुनसुन कर कान ये हो गये बहरे।
यकीं अब हो गया होगा लौटकर अब न आयेंगे।।
मगर लाचार आदत से सुने हमने सभी त्र्यम्बक।
न जीने दे उमंगों को मार आंसू बहायेंगे।।

अजनबी आ गया बनकर


अजनबी आ गया बनकर, मेरा हमदर्द जाने क्यों,
तसल्ली दिल को देने को, प्यार अपना जताने क्यों।।1।।
मुझे अफसोस मन में है,शिकायत भी जरा सी है,
मुनासिब पर नहीं कहना,जिन्दगी खुद तरासी है।
चला आया कोई मेरा,मुझे हस्ती बताने क्यों।।2।।
दिखाकरके बङे सपने,बो गायब हो गया ऐसे,
सुबह की धूप से शबनम सिमट जाती स्वयं जैसे।
छिपा है चांद बादल में,किसी का दिल जलाने क्यों।।3।।
नदी को ही समुन्दर की जरूरत हो नहीं ऐसा,
समुन्दर भी मचलता है, मिलन को प्रेमियों जैसा।
मेघ बनकर वरषता है, आग दिल की बुझाने को।।4।।
पता मुझको भी सच तो है,प्यार में है अधूरापन,
वर्ण पहला ही जब आधा,कहां से दे ये पूरापन।
बङा दमदार फन है ये,बना केवल रुलाने को।।5।।
राह सबकी जुदा होती,मंजिलें भी जुदा होती,
तरीके भी जुदा होते,चाहतें भी जुदा होती।
जुदा सब हैं सभी से तो,मिलन फिर क्यों सताने को।।6।।
न धरती से गगन मिलता,न सूरज का निशा से मन,
कमल ना चांद से खिलता,भीख से ना भरे दामन।
अगर झुकना नहीं त्र्यम्बक,तो फिर आया मनाने क्यों।।7।।

इबादत है खुदा की ये



इबादत है खुदा की ये,जो डूबे बो उतर पाये।
मुकम्मल हो न हो चाहे,प्रेम जीवन को महकाये।।1।।
     प्रेम है आग का दरिया, धधकता ये हमेशा ही।
     जिसे जलने का खतरा हो,वो इसके पास न आये।।2।।
प्रेम है ज्वार सागर का,विपत्ती के मगर इसमें।
जिसे मिटने का डर ना हो,वही वस पार जा पाये।।3।।
     नहीं करने से होता है,प्रेम खिलता अचानक ही।
     कहा कुछ जा नहीं सकता,कहां ये मौन मुस्काये।।4।।
नहीं दो से कभी होता,अगर है तो वो सौदा है।
अरे ये प्रेम का मोती,हृदय सीपी में पल पाये।।5।।
     जिसे जीने की हसरत है,रखे वो ना कदम आगे।
     अरे ये मौत का कूआ,बलि दी शीश की जाये।।6।।
जिसे अपमानका भय है,जिसे चाहत अभी यशकी।
नवो सोचे इधर बिलकुल,जमाने सेजो शरमाये।।7।।
     प्रेम है साधना सिद्धी,प्रेम अवतार प्रभु का है।
    वासना से रहित त्र्यम्बक,प्रेम तन मन को महकाये।।8।।

जगे हो आप मधुसूदन


जगे हो आप मधुसूदन,मुझे किस बात की चिन्ता ।
तुम्हारे हाथ जीवन रथ,करूं किस बात की चिन्ता।।
जमाना चाहे दुश्मन हो,डगर कांटों भरी चाहे।
मुझे न फिक्र बिल्कुल है,शरों की हो झङी चाहे।।
          तुम्हीं को अब तो करनी है,मेरे विश्वास की चिन्ता।।1।।
मुझे ना द्रोण से भय है,मुझे ना भीष्म से भय है।
जहां पर तुम कृपा करते,वहां हर हाल में जय है।।
          तुम्हीं को सौंप दी मैने ,मेरे आघात की चिन्ता।।2।।
कर्ण हो शल्य हो चाहे,साथ में आपके रहते।
सभी को मार डालुंगा,ऋषी मुनि सिद्ध ये कहते ।।
           गोद में हूं तुम्हें करनी,मेरे हालात की चिन्ता।।3।।
हार अरु जीत के संग में,बुद्धि मन गात की चिन्ता।
तुम्हीं पर छोङ दी मैंने ,तात अरु मात की चिन्ता।।
          तुम्हें ही अब तो करनी है,मेरी दिन रात की चिन्ता।।4।।
कङी हो धूप सूरज की,भले ही शीत की आंधी।
दया की छांव तेरी है,कटे सब आधि अरु व्याधी।।
          तुम्हारे बल पै सोता हूं,तुम्हेंसब बात की चिन्ता।।5।।
मुझे सब याद है मोहन,मेरी मां का दुखी जीवन।
सभा में खीचना साङी,द्रोपदी का करुण क्रन्दन।।
          तुम्हारे हाथ में प्यारे,मेरे जज्बात की चिन्ता।।6।।
कर्ण की गालियां चुभती,वनों के गम भी है ताजी ।
दुखों का भार ढोकर भी,तेरी मर्जी में हूं राजी ।।
          शरण में आ गया त्र्यम्बक,करो तुम दास की चिन्ता।।7।।