शाम
को अब ना जलाते दीप वो,दिल विचारा दीप बनकर जल रहा है।1।।
ये
घोंसले क्यों सब हुए वीरान हैं,आस्तीने नाग छिपकर चल रहा है।।2।
पतझङ
बिना क्यों आज उजङा है चमन,साखपर उल्लू ये देखो पल रहा है।।3।।
न्याय
क्यों ये मुख छिपाके है पङा,आज शकुनि धर्म को फिर छल रहा है।।4।।
सीता
हरण में राम का खुद हाथ है,रावण विचारा हाथ देखो मल रहा है।।5।।
मदहोश
हैं कुर्सी पै बैठे लोग सब,सत्य सत्ता को सही में खल रहा है।।6।।
छीन
लेता है निवाला हाथ से,इंसान किस सांचे में अब ये ढल रहा है।।7।।
है
खून की वरषात देखो हरतरफ,पाप का बरगद स्वयं ही फल रहा है।।8।।
क्या
पता कितना गिरेगा आदमी,स्वाद की खातिर पशु को तल रहा है।।9।।
ये
क्या हुआ इमान को बीमार है,जिश्म पैसे में यहां जो मिल रहा है।।10।।
जो
सादगी में जी रहा वो रो रहा है,हर तरफ हैवान ही तो खिल रहा है।।11।।
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