दिन के दीपक के जैसा ही मैं तो जलता रहा निरंतर
पथ में था अँधियारा गहरा, फिर भी चलता रहा निरंतर,
पग पग पर देता था पहरा, अंतस् का आलोक निरंतर |
राह विषम थी लक्ष्य
अनिश्चित, मन में था कुछ करना है,
मैं ही मेरा मित्र शत्रु
हूँ, फिर किससे क्यों क्या डरना है |
स्वजनों का स्नेह सरोवर, सूख गया आतप की भांति,
पर दृढ़ता की सुरसरिता से ही, मैं तो पलता रहा निरंतर |
नहीं समझते लोग मुझे तो
क्यों उनको समझना है,
दुनिया का दस्तूर निराला
सच मरने पर जाना है |
दिन में कीमत नहीं दीप की तो क्या रात नहीं होगी ,
दिन के दीपक के जैसा ही मैं तो जलता रहा निरंतर |
जग में मिला किसे क्या कब
है ये तो मन बहलाना है ,
क्या खोना है क्या पाना
है सपनों का अफसाना है |
जन्म मृत्यु एक काल खंड है उदय अस्त की भांति ही ,
सफर सुहाना ही जीवन है मृत्यु ठौर ठिकाना है |
जान न पाया कैसे कैसे जीवन ढलता रहा निरंतर |
कब अगस्त्य बन शोक समंदर
शोक लिया बस ऐसे ही
कब आँसू पीकर द्विविधा के मन रोक लिया बस ऐसे ही,
कब आँसू पीकर द्विविधा के मन रोक लिया बस ऐसे ही,
नहीं दैन्य और नहीं पलायन
मेरी पूजा थी संघर्ष ,
यही मंत्र निज जीवन पथ के इनसे पाया नव उत्कर्ष,
जैसा बोकर आया था मैं वो
ही फलता रहा निरंतर |
नहीं लिखा इतिहास कभी इतिहास बनूँ थी यही चाह ,
जिस पथ पर ऋषि दिव्य गए हैं वो ही अपनी बने राह,
कहते है मिट जाने पर ही बीज वृक्ष बन जाते हैं ,
इसी आस में पल पल यूं ही मैं तो गलता रहा निरंतर |
त्र्यंबकेश्वर
चैतन्य
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