Saturday 7 July 2012


श्री शंकराचार्य पंचकम्     
बौद्धध्वान्तहरं हरेःप्रियतमं वेदान्तविद्याकरं,
योगीशं यतिवृन्दवन्दितपदं वैराग्यरागेरतम्।
गोविन्दांघ्रिसरोजभक्तिवनिता यस्यप्रिया भामिनी,
वंदे तं यतिभूषणं श्रुतिशरं श्रीशंकरंशंकरम्।।1
बौद्धों के शून्यवाद विषयक गहन अंधकार का हरण करने वाले,श्रीमन्नारायण के अनन्यानुरागी,वेदान्त विद्या के सागर,योगि वृन्द के द्वारा वन्दित चरण कमल वाले,योगीश,वैराग्य के राग मे अनुरक्त,गोविन्दभगवत्पाद (आचार्यशंकर के सद्गुरुदेव) के पाद पद्मों की भक्ति ही जिनकी प्रियतमा की भांति सहचरी है,यतिकुल शिरोमणि श्रुतियों के शरों से समर्थ,भगवान शंकर के अवतरित स्वरूप भगवत्पाद आचार्य शंकर की हम  वंदना करते हैं,,(श्रियः ईशः श्रीशः, तं श्रीशं विष्णुं करोति रचयति इति श्रीशंकरः तं श्रीशंकरं ,,अखिल ब्रह्माण्ड प्रणेतात्वेन तत्तु सुसंगतमेव,, )
श्रौतस्मार्त परंपरा परिभवं संवीक्ष्य यो व्याकुलः,
पूर्णं ब्रह्मसनातनं श्रुतिनुतं,शून्यादिकं कल्पना।
याथार्थ्यं परिबोधितुं भुवितले यो भारते भारतः,
वंदे तं यतिरूपिणं सुरगुरुं श्रीशंकरंशंकरम्।।2
श्रौत स्मार्त परंपरा के परिभव को देखकर जो व्याकुल हो उठे,तथा घोषणा कर दिये कि श्रुतियों के द्वारा वंदित,श्रुतियों के द्वारा प्रतिपादित,सनातन ब्रह्म पूर्ण है(पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते),शून्यवादियों का मत तो कल्पना पूर्ण भ्रान्ति मात्र है,इस प्रकार वास्तविकता का परिबोधन कराने के लिये जो इस भूतलस्थ भारतवर्ष में ज्ञानप्रसार हेतु प्रवृत्त हुए,संन्यासाश्रमोद्धारक, देवों के भी आचार्य,कल्याण कर्ता भगवान शंकराचार्य की हम वंदना करते हैं,,
जाड्यं यो हृतवान् मतेःमतिमतामद्वैततत्वाग्निना,
सर्वं ब्रह्ममयं चराचरमिदं भिन्नं न किंचित् ततः।
व्यर्थं स्वप्नसमं जगत्परिभवःयो घोषणायांरतः,
वन्दे तं जगदीश्वरं यतिवरं श्रीशंकरंशंकरम्।।3
,,सर्वं खल्विदं ब्रह्म,,ये चराचर जगत् ब्रह्म ही है,,तदभिन्न कुछ नहीं,ये सांसारिक विस्तार स्वप्न के समान व्यर्थ तथा काल्पनिक है,इस प्रकार के समुद्घोष में निरत रहकर अद्वैत तत्वोपदेश रूपी पवित्र अग्नि के द्वारा जिन्होंने अहंमन्य(बङे बङे पण्डित मानियों) मतिमानों की मति की जङता का अपनोदन किया,ऐसे यति रूप में अवतरित जगदीश्वर कल्याण कर्ता आचार्य शंकर को हम नमन करते हैं,
बाल्यादेव विलक्षणश्च विगुणो ज्ञानाकरो ज्ञानदः,
शास्त्रार्थे प्रतिपन्थिनामसुहरो मत्तेभ सिंहोयथा।
युक्त्या च श्रुति संबलेनसहितः यो दिग्जयी दुर्धरः,
वन्दे तं भुवनेश्वरं भवनिधिं श्रीशंकरंशंकरम्।।4
शैशव से ही अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा संपन्न विशिष्ट गुणों से युक्त,ज्ञान प्रदान करने वाले ज्ञान के भंडार,शास्त्रार्थ समर में श्रुति स्मृति विरोधी प्रतिपंथियों के तेज बल सहित इन्द्रियों की शक्ति का  उस प्रकार हरण करने बाले,जैसे मदमत्त गजराज के समस्त तेज का हरण सिंह करता है,,,युक्ति तथा श्रुति संबल से सशक्त होकर चतुर्दिक् विजेता,ऐसे भवनिधि भुवनेश्वर जगत्कल्याण कर्ता आचार्य शंकर का हम वंदन करते हैं,,,
बालार्कप्रतिमं सरोजवदनं सौभाग्य शोभामयं,
सारल्यं हृदये  परा कठिनता दिव्ये विचाराहवे।
वेदानां समुपासको नरवरो यो ज्ञान सिन्धुः स्वयं,
वन्दे तं सुरपूजितं विधिनुतं श्रीशंकरं शंकरम्।।5
प्रातःकालीन अरुणिम आभा संपन्न सूर्य के सदृश आभा संयुक्त मुख कमल बाले,सौभाग्य समन्वित शोभा बाले,हृदय में लोक कल्याण की भावना से परिपूरित सरलता लिये, शास्त्रार्थ रूपी महासंग्राम में अत्यन्त कठोर से प्रतीत होने बाले,वेदों के समुपासक ,,नरश्रेष्ठ तथा जो ज्ञान के अथाह सागर है,,उन सुरपूजित ब्रह्माजी द्वारा नमस्कृत कल्याण कर्ता भगवदावतार आचार्य शंकर को हम नमन करते हैं,,,,
अद्वैततत्व बोधाय,चित्त संशोधनाय च।
करोति त्र्यंबकः प्रीत्या,शंकराचार्य पंचकम्।।
चित्त संशुद्धि पूर्वक,, अद्वैत तत्वज्ञान के लिये,प्रीति पूर्वक त्र्यम्बक श्री शंकराचार्य पंचक की रचना करता है,,,
यहां दो स्वरूपों को ध्यान में रखकर दो भाव दिये हैं,,,1,, आचार्य श्री को नररूप माना है(क्योंकि हमको कोई अधिकार नहीं कि मानवता के सौभाग्य का अपहार करें ,वे मानव तन का आश्रय लेकर ही प्रकट हुए) अतः मानवत्वेन कुछ शब्दों का प्रयोग है,,2,,, भगवान शंकराचार्य साक्षात् देवाधिदेव ही हैं अतः भगवद्भाव की भावना से कुछ शब्द प्रयुक्त हो गये हैं,,

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